पहचान की राजनीति और शिक्षा पर हमला
दक्षिणपंथी रणनीति, संगठनात्मक विखंडन और मानवतावादी प्रतिरोध
✍️ कृष्ण नैन, हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ
🔶 प्रस्तावना: पहचान का युग और चेतना का संकट
आज का समाज “पहचान” की राजनीति से संचालित हो रहा है — धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र और वर्ग की दीवारें लगातार ऊँची की जा रही हैं। यह केवल सामाजिक विभाजन नहीं, बल्कि चेतना को नियंत्रित करने की राजनीतिक रणनीति है।
शिक्षा, जो समाज की आत्मा है, इस विभाजन का सबसे बड़ा शिकार बन चुकी है। दक्षिणपंथी ताकतें शिक्षा को अपने दीर्घकालिक सत्ता नियंत्रण का साधन बना रही हैं।
🔶 पहचान की राजनीति: संघर्ष से सत्ताकरण तक
पहचान की राजनीति का आरंभ उत्पीड़न और असमानता के खिलाफ हुआ था, लेकिन जब यह वर्गीय एकता और सामाजिक न्याय से कटकर केवल समूह-विशेष के हित तक सीमित हो जाती है, तो यह सत्ता और पूंजी के लिए सबसे उपयोगी औजार बन जाती है।
विश्व स्तर पर नवउदारवादी नीतियाँ चाहती हैं कि समाज छोटे-छोटे समूहों में बँट जाए — ताकि न कोई साझा संघर्ष हो, न कोई संगठित विरोध।
🔶 शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण की रणनीति
भारत में शिक्षा अब विचार निर्माण का नहीं, विचार नियंत्रण का माध्यम बन चुकी है।
धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर इतिहास और समाजशास्त्र को बदला जा रहा है; वैज्ञानिकता की जगह मिथक स्थापित किए जा रहे हैं।
इसके समानांतर, शिक्षक वर्ग को वर्ग, केटेगरी, भर्ती वर्ष, पद और जाति के नाम पर बाँट दिया गया है।
हर श्रेणी का अपना संगठन बना है — प्राथमिक, माध्यमिक, अतिथि, लैब, कंप्यूटर, पीजीटी, जेबीटी — जिससे शिक्षकों की सामूहिक शक्ति लगातार कमजोर हुई है।
🔶 संगठनात्मक विखंडन: संघर्ष की ताकत का ह्रास
पहले शिक्षक संगठन शिक्षा बचाने की सामूहिक आवाज़ हुआ करते थे।
अब अनेक संगठन केवल अपने वर्गीय हित या वेतनमान की मांगों तक सिमट गए हैं।
इस बिखराव ने विभागीय एकता और सामाजिक सरोकार दोनों को क्षीण किया है।
जब तक शिक्षक एक मंच पर नहीं आएँगे, तब तक
निजीकरण,
ठेकेदारी, अनियमित शोषित रोजगार, पैशन विहिन रोजगार
गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ,
और सांप्रदायिक पाठ्यक्रमों के खिलाफ
अध्यापक संघ के अलावा कोई प्रभावी प्रतिरोध संभव नहीं हो पा रहा हैं।
🔶 दक्षिणपंथ की दीर्घकालिक योजना
यह सब आकस्मिक नहीं है।
सत्ता की दक्षिणपंथी - गैर बराबरी सोच पहचान की राजनीति को योजनाबद्ध ढंग से बढ़ावा देती है।
पहले “धार्मिक एकता” के नाम पर एक कृत्रिम राष्ट्रवाद गढ़ा जाता है,
फिर उसी के भीतर जाति, क्षेत्र, और पेशागत (नौकरी- पद) पहचानें बनाकर जनता/शिक्षकों को आपस में भिड़ा दिया जाता है।
शिक्षा क्षेत्र में इसका रूप और भी गहरा है —
सरकार खुद विरोधाभासी आदेश देकर भ्रम पैदा करती है,
फिर शिक्षकों को ही दोषी ठहराकर बदनाम करती है।
यह सब जनता के मन में सरकारी स्कूल और शिक्षकों के प्रति अविश्वास पैदा करने की सोची-समझी चाल है।
🔶 धर्म, जाति, केटेगरी और लिंग के सवाल पर महत्वाकांक्षा:-
धर्म और जाति की पहचान को सत्ता ने हमेशा वर्चस्व बनाए रखने के लिए उपयोग किया है।
आज शिक्षा संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं।
पाठ्यक्रम में धार्मिक प्रतीकों का बढ़ता उपयोग,
जातिगत संगठनों का फैलाव,
और महिला शिक्षकों के प्रति असमान दृष्टिकोण —
ये सब इस बात के प्रमाण हैं कि पहचान की राजनीति ने शिक्षा के लोकतांत्रिक ढाँचे को गहराई से प्रभावित किया है।
इसका प्रतिकार केवल संवैधानिक समानता, वैज्ञानिक दृष्टि और मानवीय सोच से ही संभव है।
🔶 पूंजी और शिक्षा का बाज़ारीकरण
नवउदारवादी दौर में शिक्षा को “सेवा” नहीं बल्कि “निवेश” के रूप में देखा जाने लगा है।
निजी स्कूलों को सरकारी मदद, सरकारी स्कूलों की उपेक्षा, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर निर्भरता —
इन सबने शिक्षा को एक वस्तु में बदल दिया है।
यहाँ तक कि “संस्कार” और “राष्ट्रवाद” के नाम पर भी बाजार खड़ा किया जा रहा है।
इस परिस्थिति में पहचान आधारित आंदोलन पूंजी के हितों को ही मजबूत करते हैं क्योंकि बँटा हुआ समाज कभी संगठित प्रतिरोध नहीं कर सकता।
🔶 मानवतावादी और प्रगतिशील दृष्टि की आवश्यकता
अब वक्त है कि शिक्षक अपने संगठनों की सीमाएँ तोड़ें और शिक्षा के व्यापक जन-सरोकारों को केंद्र में रखते हुए सांझा मंच पर आएं।
हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ पहचान आधारित बिखराव के विरुद्ध मुद्दों पर आधारित व्यापक एकता की कोशिश में लगा रहता हैं। जिसमें सभी को मिलकर
वैज्ञानिक दृष्टिकोण,
सामाजिक समानता,
और लोकतांत्रिक शिक्षा
की वैचारिक पुनर्स्थापना करनी चाहिए।
संगठन को केवल “ शिक्षक मंच” नहीं, बल्कि जनशिक्षा आंदोलन का हिस्सा बनना होगा।
🔶 समाधान: एकता, विचार और संघर्ष
मानवतावादी दृष्टिकोण के बिना न शिक्षा बचाई जा सकती है, न समाज।
इसलिए आवश्यक है कि:
शिक्षक संगठन जाति, वर्ग या पद की सीमाओं से ऊपर उठकर साझा मोर्चा बनाएं।
शिक्षा के बाज़ारीकरण और सांप्रदायिकरण के खिलाफ वैचारिक आंदोलन चलाया जाए।
छात्रों, अभिभावकों और सामाजिक संगठनों को साथ लेकर शिक्षा बचाओ–समाज बचाओ का जनअभियान खड़ा किया जाए।
🔶 निष्कर्ष: पहचान से आगे, समानता की ओर
पहचान की राजनीति जहाँ उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ देती है, वहीं सत्ता और पूंजी के हाथों में वह विभाजन का औजार बन जाती है।
आज आवश्यकता है —
कि शिक्षक, बुद्धिजीवी और नागरिक
संकीर्ण पहचान से ऊपर उठकर
समानता, वैज्ञानिक चेतना और मानवीय एकता की दिशा में खड़े हों।
यही लोकतांत्रिक शिक्षा की असली पहचान और भविष्य है।
🕊️ “शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, समाज के पुनर्निर्माण की चेतना है। और जब शिक्षक एकजुट होते हैं — तो समाज बदलता है।”
— कृष्ण नैन
उप महासचिव
(हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ )