Sunday, 12 October 2025

पहचान की राजनीति

पहचान की राजनीति और शिक्षा पर हमला
दक्षिणपंथी रणनीति, संगठनात्मक विखंडन और मानवतावादी प्रतिरोध
✍️ कृष्ण नैन, हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ
🔶 प्रस्तावना: पहचान का युग और चेतना का संकट
आज का समाज “पहचान” की राजनीति से संचालित हो रहा है — धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र और वर्ग की दीवारें लगातार ऊँची की जा रही हैं। यह केवल सामाजिक विभाजन नहीं, बल्कि चेतना को नियंत्रित करने की राजनीतिक रणनीति है।
शिक्षा, जो समाज की आत्मा है, इस विभाजन का सबसे बड़ा शिकार बन चुकी है। दक्षिणपंथी ताकतें शिक्षा को अपने दीर्घकालिक सत्ता नियंत्रण का साधन बना रही हैं।
🔶 पहचान की राजनीति: संघर्ष से सत्ताकरण तक
पहचान की राजनीति का आरंभ उत्पीड़न और असमानता के खिलाफ हुआ था, लेकिन जब यह वर्गीय एकता और सामाजिक न्याय से कटकर केवल समूह-विशेष के हित तक सीमित हो जाती है, तो यह सत्ता और पूंजी के लिए सबसे उपयोगी औजार बन जाती है।
विश्व स्तर पर नवउदारवादी नीतियाँ चाहती हैं कि समाज छोटे-छोटे समूहों में बँट जाए — ताकि न कोई साझा संघर्ष हो, न कोई संगठित विरोध।
🔶 शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण की रणनीति
भारत में शिक्षा अब विचार निर्माण का नहीं, विचार नियंत्रण का माध्यम बन चुकी है।
धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर इतिहास और समाजशास्त्र को बदला जा रहा है; वैज्ञानिकता की जगह मिथक स्थापित किए जा रहे हैं।
इसके समानांतर, शिक्षक वर्ग को वर्ग, केटेगरी, भर्ती वर्ष, पद और जाति के नाम पर बाँट दिया गया है।
हर श्रेणी का अपना संगठन बना है — प्राथमिक, माध्यमिक, अतिथि, लैब, कंप्यूटर, पीजीटी, जेबीटी — जिससे शिक्षकों की सामूहिक शक्ति लगातार कमजोर हुई है।
🔶 संगठनात्मक विखंडन: संघर्ष की ताकत का ह्रास
पहले शिक्षक संगठन शिक्षा बचाने की सामूहिक आवाज़ हुआ करते थे।
अब अनेक संगठन केवल अपने वर्गीय हित या वेतनमान की मांगों तक सिमट गए हैं।
इस बिखराव ने विभागीय एकता और सामाजिक सरोकार दोनों को क्षीण किया है।
जब तक शिक्षक एक मंच पर नहीं आएँगे, तब तक
निजीकरण,
ठेकेदारी, अनियमित शोषित रोजगार, पैशन विहिन रोजगार 
गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ,
और सांप्रदायिक पाठ्यक्रमों के खिलाफ
अध्यापक संघ के अलावा कोई प्रभावी प्रतिरोध संभव नहीं हो पा रहा हैं।
🔶 दक्षिणपंथ की दीर्घकालिक योजना
यह सब आकस्मिक नहीं है।
सत्ता की दक्षिणपंथी - गैर बराबरी सोच पहचान की राजनीति को योजनाबद्ध ढंग से बढ़ावा देती है।
पहले “धार्मिक एकता” के नाम पर एक कृत्रिम राष्ट्रवाद गढ़ा जाता है,
फिर उसी के भीतर जाति, क्षेत्र, और पेशागत (नौकरी- पद) पहचानें बनाकर जनता/शिक्षकों को आपस में भिड़ा दिया जाता है।
शिक्षा क्षेत्र में इसका रूप और भी गहरा है —
सरकार खुद विरोधाभासी आदेश देकर भ्रम पैदा करती है,
फिर शिक्षकों को ही दोषी ठहराकर बदनाम करती है।
यह सब जनता के मन में सरकारी स्कूल और शिक्षकों के प्रति अविश्वास पैदा करने की सोची-समझी चाल है।
🔶 धर्म, जाति, केटेगरी और लिंग के सवाल पर महत्वाकांक्षा:-
धर्म और जाति की पहचान को सत्ता ने हमेशा वर्चस्व बनाए रखने के लिए उपयोग किया है।
आज शिक्षा संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं।
पाठ्यक्रम में धार्मिक प्रतीकों का बढ़ता उपयोग,
जातिगत संगठनों का फैलाव,
और महिला शिक्षकों के प्रति असमान दृष्टिकोण —
ये सब इस बात के प्रमाण हैं कि पहचान की राजनीति ने शिक्षा के लोकतांत्रिक ढाँचे को गहराई से प्रभावित किया है।
इसका प्रतिकार केवल संवैधानिक समानता, वैज्ञानिक दृष्टि और मानवीय सोच से ही संभव है।
🔶 पूंजी और शिक्षा का बाज़ारीकरण
नवउदारवादी दौर में शिक्षा को “सेवा” नहीं बल्कि “निवेश” के रूप में देखा जाने लगा है।
निजी स्कूलों को सरकारी मदद, सरकारी स्कूलों की उपेक्षा, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर निर्भरता —
इन सबने शिक्षा को एक वस्तु में बदल दिया है।
यहाँ तक कि “संस्कार” और “राष्ट्रवाद” के नाम पर भी बाजार खड़ा किया जा रहा है।
इस परिस्थिति में पहचान आधारित आंदोलन पूंजी के हितों को ही मजबूत करते हैं क्योंकि बँटा हुआ समाज कभी संगठित प्रतिरोध नहीं कर सकता।
🔶 मानवतावादी और प्रगतिशील दृष्टि की आवश्यकता
अब वक्त है कि शिक्षक अपने संगठनों की सीमाएँ तोड़ें और शिक्षा के व्यापक जन-सरोकारों को केंद्र में रखते हुए सांझा मंच पर आएं।
हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ  पहचान आधारित बिखराव के विरुद्ध मुद्दों पर आधारित व्यापक एकता की कोशिश में लगा रहता हैं। जिसमें सभी को मिलकर 
वैज्ञानिक दृष्टिकोण,
सामाजिक समानता,
और लोकतांत्रिक शिक्षा
की वैचारिक पुनर्स्थापना करनी चाहिए।
संगठन को केवल “ शिक्षक मंच” नहीं, बल्कि जनशिक्षा आंदोलन का हिस्सा बनना होगा।
🔶 समाधान: एकता, विचार और संघर्ष
मानवतावादी दृष्टिकोण के बिना न शिक्षा बचाई जा सकती है, न समाज।
इसलिए आवश्यक है कि:
शिक्षक संगठन जाति, वर्ग या पद की सीमाओं से ऊपर उठकर साझा मोर्चा बनाएं।
शिक्षा के बाज़ारीकरण और सांप्रदायिकरण के खिलाफ वैचारिक आंदोलन चलाया जाए।
छात्रों, अभिभावकों और सामाजिक संगठनों को साथ लेकर शिक्षा बचाओ–समाज बचाओ का जनअभियान खड़ा किया जाए।
🔶 निष्कर्ष: पहचान से आगे, समानता की ओर
पहचान की राजनीति जहाँ उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ देती है, वहीं सत्ता और पूंजी के हाथों में वह विभाजन का औजार बन जाती है।
आज आवश्यकता है —
कि शिक्षक, बुद्धिजीवी और नागरिक
संकीर्ण पहचान से ऊपर उठकर
समानता, वैज्ञानिक चेतना और मानवीय एकता की दिशा में खड़े हों।
यही लोकतांत्रिक शिक्षा की असली पहचान और भविष्य है।
🕊️ “शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, समाज के पुनर्निर्माण की चेतना है। और जब शिक्षक एकजुट होते हैं — तो समाज बदलता है।”
— कृष्ण नैन
उप महासचिव 
(हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ )

Monday, 6 October 2025

nep

06.10.2025
Meeting of the Democratic Forum, Rohtak held on 05.10.2025
A Discussion on Five Years of New Education Policy (NEP-2020) in Higher Education in Haryana

(This note is based on the main issues highlighted by the four invited speakers:  Prof. Narinder S. Chahar, Prof. Vanita Rose, Prof. Sunil Kumar & Mr Vinod Gill, a research scholar and the participants in Question-and-Answer session which followed the discussion: Prof. Surinder Kumar, President, Democratic Forum, Rohtak)
• Deterioration of Higher Education in Haryana accelerated with the introduction of semester system on ad-hoc basis in 2008-09. Syllabus was bifurcated into two parts and this became the syllabi of various subjects/disciplines at graduate and postgraduate levels. The teaching-learning process was crippled and examination schedule was completely dislocated as the external examination system and semester system were not compatible. Further, Choice Based Credit System (CBCS) was introduced without taking into consideration the necessary and sufficient conditions for its success i.e. no new faculty appointments, no additional subjects/courses in the universities and colleges were introduced. All this led to deterioration in the teaching learning process in the universities and colleges in Haryana. 
• Education is in the concurrent list of the Constitution of India. Further centralisation of education took place with the Central Government/UGC giving directives through the Governors of the states and Vice-Chancellors of the state universities e.g. controversies erupted in Tamil Nadu and Kerala.
• The Haryana State Government claims to have implemented NEP-2020 fully by 2025. However, ground realities do not corroborate the claim.  
• No legislative/regulatory steps have been taken by the state government to enhance the autonomy of the universities (the EC and the AC) and the colleges. No change in the college affiliation system with the universities has been brought about. The process of appointment of the VCs in the universities remains centralised, and the political leadership and bureaucracy rule the roost. Other administrative functionaries like Dean Colleges, Director Distance Education, Dean Students Welfare etc. are appointed on ad-hoc basis and teaching faculty is burdened with these responsibilities, thereby compromising teaching and research in the teaching departments. In fact, the old ad-hoc system continues – which is not in consonance with the requirements of the NEP- 2020. 
• Gross Enrolment Ratio (GER) in Haryana was 31% (2020-21). There is no clear roadmap to raise it to 50% by 2035 as required under the NEP-2020. In Haryana’s Colleges (Government, Aided and Private Colleges), for the post-graduate courses only 39% students’ seats are filled up and for graduate classes, 51% seats are filled up, apparently due to increasing fee, decrease in scholarships, and poor quality of education. Drop-out rates are high, absentee enrolment of students is increasing, many students take admission for concessional bus passes only and attend private coaching classes for vocations. There is a sharp decline in enrolment of students in basic sciences in the colleges. Dalit students are suffering the most. However, enrolment in the Distance Education mode is increasing. 
• As of now, there is no appointment of new teaching faculty in colleges and universities, even the existing 40-50% posts are lying vacant, what to talk about adding to the teaching faculty positions to revamp higher education and enhance Gross Enrolment Ratio. At best, research scholars and contractual teachers are appointed to fill the gap of teaching workloads in the colleges and universities, what to talk of quality teaching and research.
• There has been little effort to build capacities of the teaching faculty in the universities to restructure academic curriculum to meet the requirements of the NEP-2020. As senior faculty positions in most of the teaching departments are lying vacant, the task of restructuring courses and curriculum in the holistic multi-disciplinary/inter-disciplinary framework becomes all the more difficult.  
• Efforts have been made to restructure academic curriculum within the National Higher Education Qualifications Framework (NHEQF). However, as the teachers were not familiar with the requirements of NHEQF, the quality of curriculum and syllabi has been compromised. It has led to ad-hocism in the course-structures of various disciplines.
• The spirit of Liberal Arts education in colleges is not feasible and is missing as the facilities to teach in more than two-three subjects in each stream is not there in colleges. There is hardly any student who opts for a combination of Physical Sciences – say, Physics - and Humanities/Social Science subjects like Music, Philosophy and Economics, in the colleges. 
• As almost all the teachers were trained in their own post-graduation education only in the (strictly) disciplinary framework, they have limited capacity to frame curriculum and teach in the holistic multi-disciplinary/inter-disciplinary framework.
• To evolve an accountable system of the teaching-learning process requires a cultural change like in JNU, IITs and IIMs. Regional universities and colleges need a massive transformation in their work culture for which teaching faculty needs to be trained and skilled. As of now, there are no signs of this happening on the ground. 
• The objectives of the Academic Bank of Credits are not clear to teachers as well as students. This has led to difficulties in its operationalisation. 
• A survey conducted by the Department of Education, M.D. University, Rohtak shows that most of the teachers in the university and colleges have no opinion about the NEP-2020 which would imply, they were not aware of its provisions. Only 7% teachers had positive opinion and 25% had negative opinion about the NEP-2020. In such a situation, NEP cannot be implemented successfully.
• For the capacity-building programmes conducted by the universities to address the concerns of the NEP-2020, only one teacher from each of the affiliated colleges was invited. It was an inadequate training programme and got reduced to being a ritual. 
• In some of the Education Colleges and Education Departments of universities in Haryana, Four-Year Integrated Teachers Education Programme has been introduced without adequate preparation. There are no guidelines for the programme till date. 
• The Vocational Education Programme in various classes at under-graduate levels was not well-conceived and was just a ritual. It is not administered well. Internships with local industries, businesses, civil society organisations/NGOs are just a formality and need to be revamped completely. The students are asked to bear the cost of internship programmes, which is very high.
• The spirit of NEP-2020 has been lost in the process of its implementation. It appears that policies are not for implementation but for documentation only. Campus democracy is under threat. What has emerged is centralisation, ad-hocism, commercialisation and privatisation of education. 
• In the name of Indian Knowledge System and value-based education, Hindutva/a communal agenda is being promoted. 
• Financing of Higher Education in Haryana: The State Government’s financial grants to universities as a share of their annual budgetary requirements has been consistently declining. The universities are financing their academic programmes through self-financing programmes, increases in the students’ fees and other annual charges, increase in the examination fees etc. Higher education has become expensive and unaffordable for the poor and even the middle class is feeling its pinch. This has led to drop in the Gross Enrolment Ratio (GER) in higher education institutions in the state, even though an increase in the GER is a major concern and aim of the NEP-2020. All India Federation of College and University Teachers Federation (AIFUCTO) has demanded that public education finances should be raised to 10% of the GDP, if we want to implement NEP effectively. 
• The gap between the students and the teachers is increasing. Cynicism and alienation is increasing. Dialogue between teachers and students needs to be established.

Monday, 4 August 2025

संघ का शिक्षा एजेंडा

संघ का शिक्षा एजेंडा : 
न पढेंगे पढ़ने देंगे 

० राजेंद्र शर्मा

यह संयोग हर्गिज नहीं है कि राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ या आरएसएस की स्थापना की शताब्दी के इस वर्ष में शिक्षा का क्षेत्र और उसमें भी खासतौर पर आरंभिक शिक्षा का क्षेत्र, लगातार खबरों में है। जाहिर है कि शिक्षा का यह क्षेत्र किन्हीं अच्छे कारणों से खबरों में नहीं है। यह नकारात्मक विवादों के लिए खबरों में है। इस क्रम में ताजातरीन विवाद, देश भर में स्कूली पाठ्यक्रमों के लिए मानक पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकें तैयार करने वाली केंद्रीय संस्था, राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद या एनसीईआरटी द्वारा आठवीं तक की कक्षाओं के लिए जारी की गई सामाजिक विज्ञान की और उसमें भी विशेष रूप से इतिहास की पाठ्य पुस्तकों को लेकर उठा है।

       विवादित पाठ्य पुस्तकों में, इन्हीं विषयों की पिछली पाठ्य पुस्तकों से जो भारी बदलाव किए गए हैं, उनका मुख्य मकसद भारतीय इतिहास की और विशेष रूप से मध्यकालीन इतिहास को आरएसएस की सांप्रदायिक धारणाओं तथा आग्रहों को, लड़कपन की उम्र से ही बच्चों के मन में, इतिहास के रूप में बैठाना है। सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए की गई कतरब्योंत में मुस्लिम शासकों के दौर पर खासतौर पर कैंची चलाई गई होगी। यहां तक कि टीपू सुल्तान और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उसकी लड़ाइयों का जिक्र तक, सिरे से गायब कर दिया गया है। सभी जानते हैं कि अपने राजनीतिक बाजुओं के जरिए, आरएसएस को जब भी देश की सत्ता तक किसी भी तरह से पहुंच हासिल हुई है. उसने बच्चों की पाठ्य पुस्तकों के सांप्रदायिक पुनर्लेखन पर खास ध्यान दिया है।

इस सिलसिले की औपचारिक शुरूआत तो 1978 में ही हो गई थी, जब इमर्जेंसी राज की हार के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार के माध्यम से, पहली बार आरएसएस के राजनीतिक बाजू, जनसंघ को केंद्र में सरकार तक पहुंच हासिल हुई थी। यह दूसरी बात है कि आरएसएस से संबंध के रूप में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर, इमर्जेंसी के विरोध के आधार पर बनी जनता पार्टी में विभाजन हो गया, जिसका जनसंघ घातक नई राजनैतिक पार्टी का हिस्सा रहते हुए भी, आरएसएस के प्रति  वफादारी में बनाए रखने की छूट चाहता था। इस विभाजन के चलते जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई और चौतरफा विरोध के चलते जिसमें खुद जनता पार्टी के दूसरे घटकों में से विरोध भी शामिल था , स्कूली पाठ्य पुस्तकों का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने की ये  शुरुआती कोशिशें भी ज्यादा असर नहीं दिखा पाई।
         
          इन कोशिशों को बड़ा बढ़ावा मिला 1998 में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद। वाजपेयी सरकार में शिक्षा मंत्रालय, मुरली मनोहर जोशी ने संभाला, जो एक ओर अगर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे थे, तो दूसरी ओर आरएसएस के बहुत पुराने स्वयंसेवक थे। 2004 तक चले इस दौर में बाकायदा इतिहास के पुनर्लेखन की घोषणाएं की गयीं और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में काट-छांट से लेकर, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र जैसे पोंगापंथी विषयों को विधिवत पाठ्यक्रम में स्थान दिलाए जाने की शुरूआत की गयी। फिर भी, अब जो हो रहा है उसे देखते हुए, यह कहना ही पड़ेगा कि इतिहास का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने में मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में शिक्षा मंत्रालय को तब, कोई बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल पायी थी। बेशक, इसका संबंध इससे भी है कि इन कोशिशों का राजनीतिक ही नहीं अकादमिक हल्कों से भी जो तीखा विरोध हो रहा था, उसकी थोड़ी-बहुत प्रतिध्वनि तत्कालीन सरकार में भी सुनाई देती थी, जो गठबंधन की मजबूरियों से भी मुक्त नहीं थी। फिर भी शिक्षा की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक धारा को इस दौर में इतनी चोट तो पहुंचा ही दी गयी थी कि स्कूली शिक्षा को उसके धक्के से उबारते हुए, दोबारा पटरी में लाने के लिए, यूपीए के राज में काफी बड़ी कवायद करनी पड़ी थी।
          

           2014 से भाजपा के नेतृत्व में, गठबंधन की मजबूरियों से मुक्त और आरएसएस के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से युक्त सरकार आने के बाद से, 2004 में अधूरे छूट गए इतिहास के सांप्रदायिक पुनर्लेखन को आम तौर पर और स्कूली शिक्षा में खासतौर पर, ताबड़‌ तोड़ आगे बढ़ाया गया है। आठवीं कक्षा तक की पाठ्य पुस्तकों का लगभग पूर्ण सांप्रदायीकरण, जिस पर इस समय बहस सुनाई दे रही है, इसी लंबी प्रक्रिया का नतीजा है। ताजातरीन झटके में, एक ओर तो मुस्लिम शासनों की चर्चा को इतना सिकोड़ दिया गया है कि रजिया सुल्तान तथा नूरजहां जैसे ताकतवर शासकीय व्यक्तियों का जिक्र ही गायब कर दिया गया है, तो दूसरी ओर बाबर से लेकर औरंगजेब तक, सभी मुगल शासकों को आधुनिक अर्थ में क्रूर, दमनकारी तथा धार्मिक अत्याचार करने वाले शासकों के रूप में चित्रित किया गया है और अकबर तक को नहीं बख्शा गया है। उसी परियोजना के दूसरे पहलू के रूप में हिंदू राजाओं के ठीक इन्हीं "गुणों" का जिक्र ही न करते हुए, उनका ज्यादा से ज्यादा महिमा मंडन किया गया है।
 
         लेकिन, बात सिर्फ मुस्लिम शासकों को काले रंग से पोते जाने तक सीमित नहीं रहती है। इससे आगे, बाकायदा एक सामान्यीकरण तक भी जाती है, जिसमें खासतौर पर भारतीय इतिहास के मुस्लिम दौर को " अंधेरे दौर" या अंधकार युग 
के रूप में चिन्हित किया गया है। यह सांप्रदायीकरण के सिलसिले को, गुणात्मक रूप से एक नये स्तर पर पहुंचा देता है। दिलचस्प यह है कि आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन के इतिहास की जानकारी नहीं रखने वालों को ही "अंधेरे दौर" की इस खोज में, कुछ भी नया लग सकता है। वास्तव में यह भारतीय इतिहास लेखन के उस पश्चिमी औपनिवेशिक मॉडल की ही नई पैकेजिंग है, जिसमें ब्रिटिश-पूर्व भारतीय इतिहास को मोटे तौर पर मुस्लिम पूर्व प्राचीन काल और मुस्लिम मध्यकाल

में विभाजित किया जाता था। इसमें प्राचीन गौरवपूर्ण या स्वर्णयुग था और मध्यकाल, इस गौरव के हरण का काल यानी इस दृष्टि के हिसाब से हिंदुओं और मुसलमानों के अनवरत टकराव का काल या हिंदुओं के दमन का काल। लेकिन, इस नई पैकेजिंग में भी नया सिर्फ इतना है कि योरपीय इतिहास के काल विभाजन में मध्य युग के लिए "डार्क एज" की जिस संज्ञा का प्रयोग किया जाता है, उसी को उठाकर ज्यों का त्यों अनुवाद करके रख दिया गया है। गैर-प्राचीन भारतीय इतिहास की, योरपीय इतिहास से भिन्नता की कोई थोड़ी-बहुत गुंजाइश अब तक रहती भी थी तो उसे, इस "अंधकार युग" के आयात से पाट दिया गया है।

      स्कूली पाठ्य पुस्तकों के इस प्रसंग से ठीक पहले, स्कूली शिक्षा से ही संबंधित जो प्रसंग चर्चा में था, उसका संबंध हजारों की संख्या में सरकारी स्कूलों के बंद किए जाने से है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में यह मामला चर्चा में आया था, जहां इसी साल स्कूलों के मर्जर के नाम पर 5 हजार से ज्यादा स्कूलों के बंद किए जाने की खबर आई है। सत्ताधारी भाजपा के बहुत
ही सख्त मीडिया नियंत्रण के बावजूद, सोशल मीडिया में और थोड़ा-बहुत परंपरागत मीडिया में भी, अपने स्कूल बंद किए जाने के खिलाफ छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के भावुक करने वाले प्रदर्शनों ने ध्यान खींचा है। ये बच्चे रो-रोकर सरकार से गुहार लगा रहे थे कि उनके स्कूल बंद नहीं किए जाएं। इसी क्रम में जगह-जगह पर लगाए गए एक बैनर ने भी ध्यान खींचा- मधुशाला नहीं, पाठशाला ! दरअसल, यह बैनर भी तब वाइरल हुआ जब योगी प्रशासन इस बैनर को हर जगह से हटवाने के लिए, सड़कों पर उतरा।

      कहने की जरूरत नहीं है कि मर्जर या तार्किकीकरण आदि, आदि नामों से, छात्रों की संख्या पचास से कम होने के आधार पर, सरकारी स्कूलों को ही बंद करने के इस खेल की, उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में, जहां पढ़ाई का स्तर आम तौर पर काफी दरिद्र है, गरीबों की शिक्षा पर बहुत भारी मार पड़ रही है। याद रहे कि स्कूलों का बंद  किया जाना, भाजपा सरकारों की नीति का ही हिस्सा है। तभी तो 2014 से अब तक, देश भर में पूरे 89,441 स्कूल इस तरह से बंद किए जा चुके हैं। और इनमें से 60 फीसद स्कूल भाजपा-शासित मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में ही बंद किए गए हैं। इस सब को देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि 2021 से 2024 के बीच तीन साल में देश भर में, पहली से आठवीं कक्षा तक के दो करोड़ छात्र पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए हैं। उत्तर प्रदेश में ही, जहां इस साल पांच हजार स्कूलों को बंद किया जा रहा है, 2022-23 और 2023-24 के बीच, 1,33,035 सरकारी प्राइमरी तथा मिडिल स्कूलों में, छात्रों के दाखिलों में पूरे 24 लाख की कमी हुई थी। इस तरह, नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के नाम पर, स्कूली शिक्षा के बुनियादी ढांचे को ही ढहाया जा रहा है। जाहिर है कि यह शिक्षा के निजीकरण जैसे राजनीतिक स्वार्थों के लिए झूठे बहाने तलाश करने का ऐसा खेल है, जिसमें छात्रों के वास्तविक हितों की आहुति दी जा रही  एनईपी की आड़ में और आरएसएस के एजेंडे के खातिर, स्कूली शिक्षा के ही ध्वस्त किए जाने का ऐसा ही एक और प्रसंग जो पिछले दिनों चर्चा में रहा है, स्कूली शिक्षा में हिंदी थोपे जाने की कोशिशों का है। वैसे यह कोशिश हिंदी थोपने पर ही रुकने वाली नहीं है। जम्मू-कश्मीर से आ रहीं, उप-राज्यपाल के नेतृत्व में राज्य में स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपे जाने की खबरें, इस मुहिम के अगले चरण की ओर इशारा कर देती हैं, जिसमें माध्यम के रूप में लादी जाने वाली एक परायी (मातृभाषा इतर) भाषा का बोझ, शिक्षा के प्रयास की कमर ही तोड़ने जा रहा है। बहरहाल, जैसा कि महाराष्ट्र का पहली कक्षा से हिंदी अनिवार्य करने की कोशिश के व्यापक प्रतिरोध का अनुभव दिखाता है, इस तरह की कोशिशें आसानी से लोगों को हजम होने वाली नहीं हैं। तमिलनाडु के बाद, महाराष्ट्र में भी मोदी सरकार को त्रिभाषा फार्मूला थोपने की अपनी कोशिशों को वापस लेना पड़ा है। लेकिन, जाहिर है कि उस टकराव के बाद, जिसमें आम तौर पर शिक्षा का और खासतौर पर हिंदी का भी नुकसान तो हो चुका था।

          लेकिन, सत्ताधारी संघ-भाजपा के लिए, उसकी हिंदी को आगे बढ़ाने की मुहिम भी तो, उसके विभाजनकारी प्रचार का ही हिस्सा, जहां हिंदी को "शासक की भाषा" के रूप में थोपने की कोशिश की जाती है। इससे हिंदी की कितनी प्रगति होती है या दुर्गति होती है, इसकी उन्हें परवाह नहीं है। इसीलिए, वे कभी इसकी चिंता करते नहीं मिलेंगे कि क्या हुआ कि मध्य प्रदेश में तीन साल पहले बड़े तामझाम के साथ, मैडीकल की पढ़ाई हिंदी में कराने के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने तथा धूम-धड़ाके से उनके जारी किए जाने के बाद, अब यह सच सामने आ रहा है कि राज्य के किसी भी मैडीकल कालेज में एक भी छात्र ने हिंदी में परीक्षा नहीं दी है।
लोक लहर 


Saturday, 19 July 2025

ज्ञान विज्ञान आंदोलन

 Draft for discussion

1980 के दशक में पार्टी में जनतांत्रिक-वामपंथी राजनीति के सामने हरियाणा के समाज में मौजूद चुनौतियों की पहचान करने के लिए बहस हुई। इस बहस में हरियाणा के बारे में जाति-पितृसत्ता की मज़बूत जकड़न को चिह्नित  किया गया और साथ ही यह अवलोकन स्पष्ट तौर पर किया गया कि हमारे समाज में कृषि में हरित क्रांति के साथ-साथ जो औद्योगिक प्रगति हुई है, उसका लाभ तो शिक्षित मध्य वर्ग को मिला है। इसके चलते हरियाणा की आबादी के एक बड़े हिस्से की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई है लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ापन बड़े पैमाने पर व्याप्त है। इस बहस में स्पष्ट हुआ कि हरियाणा में अर्ध-सामंती मूल्यों पर आधारित जातीय वर्चस्व, पितृसत्ता और पुरुष प्रधानता की मान्यता है; और सामाजिक सम्बन्धों का आधार यही मान्यता है। इसके चलते महिलाओं और दलित-पिछड़ी जातियों का उत्पीड़न आम घटनाक्रम है। इसी के साथ नवधनाढ्य वर्ग में सत्ता की भूख, जोड़-तोड़ के साथ निजी तरक्की का रुझान और आत्मकेंद्रित सोच हावी है। आज़ादी के आंदोलन में पैदा हुए आदर्शवाद की कमज़ोर उपस्थिति आदि के चलते अवसरवादी, भाई-भतीजावाद पर आधारित एवं भ्रष्टाचार से लिप्त राजनीति का बोलबाला है। ऐसे वातावरण में जनवादी राजनीति की ज़मीन तैयार करना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए जनतांत्रिक चेतना, जातिवाद से इतर सोच, महिला-समानता आदि मूल्यों की समझ पैदा करने का कार्य बेहद ज़रूरी है। इस कार्य की पहचान करने के पश्चात् इसे अमल में लाने के लिए सांगठनिक ढांचों  के निर्माण की प्रक्रिया को शुरू किया गया। हरियाणा के कई ज़िलों में जनवादी सांस्कृतिक मंच/सांस्कृतिक मंच/डैमोक्रेटिक फ़ोरम, विचार मंच आदि खड़े किए गए। इन मंचों ने कई वर्षों तक जनतांत्रिक संस्कृति के निर्माण का काम किया जिसके फलस्वरूप पार्टी को अनेक कार्यकर्ता भी मिले। इन मंचों की पहुंच शहरी शिक्षित मध्यवर्ग में थी और इस वर्ग के लोगों के दिलो-दिमाग में सुप्तावस्था में पड़े आदर्शवाद को जगाने का कार्य तो किया ही गया, साथ ही प्रांत में अर्ध सामंती जकड़न पर खरोंच डालने का कार्य भी किया गया। सांस्कृतिक मंचों के लक्ष्य-उद्देश्य प्रगतिशील समाज के निर्माण की दिशा बनाने वाले थे जो आज भी सार्थक हैं। उस समय तक गांवों की ओर जाना और समाज के निचले तबकों तक पहुंच बनाने का कार्य होना बाकी था। लेकिन मध्यवर्ग के कई लोगों को इन प्रक्रियाओं से एक विश्वदृष्टि ज़रूर मिली जिसके चलते  कुछ लोग पार्टी के कार्यों में आज भी सक्रिय हैं। इसी दौर में 'प्रयास' और फिर 'जतन' नाम से पत्रिका भी प्रकाशित होती रही। यह पत्रिका भी वैचारिक आधार तैयार करने का कार्य कर रही थी। इस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में हरियाणा की पार्टी ने गुणात्मक हस्तक्षेप करने की रणनीति तैयार कर ली थी और ठोस कार्य भी किए थे। हालांकि इस अनुभव का कोई प्रामाणिक विश्लेषण करता हुआ लिखित दस्तावेज़ तैयार नहीं हो सका, फिर भी यह सही है कि एक सकारात्मक पहल के रूप में इस अनुभव को पार्टी द्वारा दर्ज किया गया है। हरियाणा में यह कार्य चल ही रहा था कि 1987 में देश-भर में पार्टी द्वारा विज्ञान और तकनीक से जुड़े प्रश्नों को धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र और भाईचारे से जोड़ते हुए जनता के व्यापक हिस्सों के बीच जाने की समझ बनाई गई और 'भारत जन विज्ञान जत्था' देश के अलग-अलग हिस्सों में चलाया गया। इस जत्थे का मूल उद्देश्य जनता के साथ वैकल्पिक समाज की परिकल्पना को सांझा करना था और इस अभियान को जिन नारों से संचालित किया गया उनमें 'जनतंत्र के लिए  विज्ञान', 'धर्मनिरपेक्षता के लिए विज्ञान', 'राष्ट्रीय विकास और आत्मनिर्भरता के लिए विज्ञान' आदि थे। हरियाणा में भी  राष्ट्रीय जत्थे  का स्वागत हुआ और इसका प्रभाव भी सकारात्मक रहा। प्रांत में जो सांस्कृतिक/जनतांत्रिक मंच कार्यरत थे उनमें  भी विज्ञान के प्रश्नों पर विमर्श शामिल हुआ। अत: प्रांत में विज्ञान और जनता के बीच गहन सम्बन्ध बनाने का जो संदेश राष्ट्रीय जत्थे से मिल रहा था, उसी के मद्देनज़र  20 जून 1987 को 'हरियाणा विज्ञान मंच' की स्थापना हुई। शुरुआत से ही मंच के साथ विज्ञान के क्षेत्र के बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी और सामान्य जन जुड़ गए। जो कार्य आरम्भ हुए, कार्य पद्धति विकसित हुई, परिप्रेक्ष्य बना - वे सब पूर्व की प्रक्रियाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न थे। अब पूरा विमर्श विज्ञान और उसके विभिन्न पक्षों के इर्द-गिर्द बनने लगा। सांस्कृतिक मंचों के कार्यों से जो दृष्टि बनी थी, वह तो काम आई लेकिन उन कार्यों का संश्लेषण अथवा समेकन विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य और कामों में नहीं हो पाया। इसी लिए जतन पत्रिका जो एक समय पर विमर्श को दिशा देने का कार्य कर रही थी, बंद हो गई।

विज्ञान मंच के शुरूआती दिनों में राष्ट्रीय जत्थे से निकले बिंदु, जैसे - आत्मनिर्भरता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय और समतामूलक समाज के लिए विज्ञान आदि विज्ञान मंच के विमर्श के केन्द्र में रहे। साइंस बुलेटिन नामक पत्रिका भी शुरू की गई।  प्रारम्भिक वर्षों में विज्ञान मंच में वैचारिक विमर्श, मंच का प्रसार, पत्रिका प्रकाशन, ज़िलों पर इकाइयों का गठन आदि कार्य हुए लेकिन धीरे-धीरे मंच राष्ट्रीय सरकारी एजेसिंयों से प्रोजेक्ट आदि लेने की दिशा में बढ़ा। इनके संचालन तथा नियोजन के लिए न्यूनतम स्थापत्य, यानी दफ़्तर, मानदेय आधारित कार्यकर्ता, बैठकों आदि के लिए प्रायोजित खर्च, परियोजनाओं पर आधारित कार्यक्रमों का आयोजन, आने-जाने वालों को किराया-भाड़ा दे सकने के प्रावधान आदि  के चलते विज्ञान मंच की कार्य पद्धतियों में गुणात्मक परिवर्तन आ गए। धीरे-धीरे लोगों से सम्पर्क कम होते गए और दफ़्तरी प्रकियाएं (जिनमें न्यूनतम वित्त-उपलब्ध था) हावी होती गईं। यह एक चारित्रिक परिवर्तन था। अब शुरुआती विमर्श भी पीछे जाने लगा और परिप्रेक्ष्य की ओर भी ध्यान कम होता चला गया। परियोजनाओं के कार्यों, उनको जारी रखने की कोशिशों, वित्तीय प्रबंधन, प्रायोजित करने वाली  सरकारी एजेंसियों की बैठकों में समय लगने लगा। इसी दौरान हरियाणा विज्ञान मंच को राष्ट्रीय नेतृत्व के एक हिस्से की ओर से विकास केंद्र (डेवलपमेंट सेंटर) की परियोजना लेने का प्रस्ताव पेश किया गया। इस केंद्र के ज़रिये ग्रामीण कारीगरों के हुनर-विकास का कार्य प्रमुखता से होना था जिसके आधार पर ये कारीगर बाज़ार के लिए उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर सकें। यह केंद्र भी आय-वृद्धि के लिए प्रशिक्षण करने के साथ-साथ इन कारीगरों को संगठित करने और वैचारिक तौर पर विकसित करने का उद्देश्य लिये हुए था परंतु इसका अनुभव भी बुनियादी तौर पर विज्ञान मंच के अनुभव से अलग नहीं हो पाया। इस केंद्र में तो अंततः वित्तीय अभाव भी बन गया और इसे बंद ही करना पड़ा। विज्ञान मंच के अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी परियोजनाओं में साधन तो उपलब्ध हुए, जैसा कि चमारिया में ज़मीन ली गई या आज़ादगढ़ में प्लॉट ले लिया गया लेकिन वैचारिक कार्य, सांगठनिक पद्धति और लोगों से जुड़ाव में कमज़ोरी आई।

1990 तक आते-आते पूरे देश में 1987 के जन विज्ञान जत्थे के उपरांत जो विज्ञान का विमर्श लोगों तक पहुंचा था, उसमें विस्तार करने की समझ बनने लगी और केरल शास्त्र साहित्य परिषद् द्वारा अरणाकुलम् में साक्षरता अभियान का प्रयोग किया गया, जिसे पूरे देश में ले जाने की समझ बनी। इसी उद्देश्य के चलते भारत ज्ञान-विज्ञान जत्था निकाला गया। इस जत्थे से देश-भर में साक्षरता अभियानों के प्रति एक आकर्षण बना और हरियाणा में 1991 में 'पानीपत की चौथी लड़ाई' के नाम से साक्षरता अभियान चला। इस अभियान में हरियाणा के अलग-अलग ज़िलों से पार्टी के कार्यकर्ता पानीपत गए और लगभग डेढ़ वर्ष तक वहीं रहकर कार्य किया। साक्षरता अभियानों का अन्य ज़िलों में भी फैलाव हुआ। पानीपत की परियोजना को 'भारत ज्ञान-विज्ञान समिति, पानीपत' के नाम से बनी संस्था द्वारा चलाया गया। साक्षरता परियोजनाओं में कार्य करते हुए 'जन सांस्कृतिक मंच' और 'हरियाणा विज्ञान मंच' के तमाम विमर्शों और परिप्रेक्ष्य को समाहित करते हुए कार्य नहीं हो पाया। हां, यह ज़रूर हुआ कि राष्ट्रीय पार्टी द्वारा देश-भर के लिए भारत ज्ञान-विज्ञान समिति का गठन किया गया और इसके माध्यम से साक्षरता अभियान का जनपक्षीय परिप्रेक्ष्य विकसित हो गया था जिसे हरियाणा में एक हद तक आत्मसात् किया गया। यह परिप्रेक्ष्य लोगों को अपनी बदहाली के कारणों को समझने और संगठित होकर उन्हें दूर करने के प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था। इन परियोजनाओं में 'जन भागीदारी' का पहलू मूल रूप से शामिल था और यही इन अभियानों की सफलता का मापदंड भी था। दूसरा पहलू यह था कि इसमें 'स्वयंसेवी कार्य' करने की प्रेरणा बद्धमूल थी और यह पार्टी की समझ का एक और महत्त्वपूर्ण आयाम था।
         
हरियाणा में 'पानीपत की चौथी लड़ाई' के नाम से पार्टी की देखरेख में चले साक्षरता अभियान की विशेष बात यह रही कि ग्रामीण क्षेत्रों में हमारी पहुंच बनी। पानीपत में ही अनेक गांवों में कला जत्थे पहुंचे, अक्षर सैनिकों के प्रशिक्षण हुए और समुदाय के सहयोग से कक्षाएं लगीं। अन्य ज़िलों से गए हुए पार्टी कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत की। अभियान में प्रशासन की हिस्सेदारी और सरकारी वित्तीय अनुदान उपलब्ध होने के चलते लोगों के बीच पहुंच बनाना अपेक्षाकृत आसान हो गया। पार्टी ने समय-समय पर इस अभियान की कार्यवाहियों की समीक्षा की, लोगों तक व्यापक पहुंच की संभावनाओं का ठीक-ठीक आकलन किया और साथ ही सरकारी परियोजनाओं की सीमाओं को भी समझा। यह समझ बनी कि अन्य ज़िलों में भी संभावनाओं के अनुसार पार्टी के साथी इन अभियानों में शामिल हों ताकि जनता के बीच साक्षरता, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक मुद्दों पर विमर्श चलाया जा सके। सिरसा, हिसार, जींद, भिवानी, कैथल, रोहतक आदि ज़िलों में पार्टी के साथियों ने एक समय पर तो नेतृत्वकारी भूमिका निभाई लेकिन कुछ समय पश्चात् कुछ ज़िलों में या तो प्रशासन के साथ विवाद उत्पन्न हो गए या फिर पार्टी के साथियों के बीच मतभेद उभरे। एक तीसरी स्थिति भी बनी जिसमें पार्टी के साथी ज़िला के साक्षरता अभियान में मुख्य भूमिका में नहीं थे। हिसार और एक हद तक जींद में तो पार्टी सदस्यों के बीच मतभेद बने, हालांकि जींद में पार्टी के एक हिस्से ने कार्य को संभालने की कोशिश की लेकिन हिसार में तो मतभेद इतने तीखे हुए की मुख्य साथियों में से एक को तो पार्टी से निष्कासित होना पड़ा और गैर पार्टी सदस्य को साक्षरता अभियान की मुख्य भूमिका में लाना पड़ा। भिवानी में प्रशासन के साथ विवाद के उभरने से पार्टी को अभियान से अलग होना पड़ा। 1991-95 के चार वर्षों में साक्षरता अभियान में किए गए कार्यों की समीक्षा तो हुई लेकिन यह समीक्षा भी मौखिक ही रही। कोई लिखित दस्तावेज़ तैयार नहीं हो सका। फिर भी समीक्षा के कुछ बिंदु जो आज भी हमारे विमर्श में बने रहते हैं, निम्नलिखित हैं :
          1.  हमारी पहुंच का दायरा बढ़ा और हम शहरी मध्यवर्ग से आगे बढ़कर ग्रामीण समुदायों में पहुंच बना सके।
          2.  इन समुदायों में से भी महिलाएं, दलित तबके और युवा ज़्यादा शामिल हुए और उनकी अपेक्षाएं और हिस्सेदारी एक सामाजिक प्रगतिशील प्रक्रिया के अंश रूप में होती हुई नज़र आई।
          3. हरियाणा के समाज में स्वयंसेवी भावना का प्रसार हुआ और जाति एवं पितृसत्ता जैसे अर्द्ध सामंती बंधनों में कुछ ढील आई।
       
प्रशासनिक हलकों में भी कुछ व्यक्ति इस कार्य को अपना निजी भावनात्मक समर्थन देते हुए दिखाई दिए। हमारी क्षमताओं में बढ़ोत्तरी हुई, जिसके चलते नवसाक्षरओं की पठन-पाठन सामग्री (कायदे एवं पुस्तकें), नाटक, गीत, रागनी आदि लिखे गए और गांव में भी पढ़ने-लिखने का वातावरण बना।

कहीं-कहीं तो जन-भागीदारी और रचनात्मक कार्यों का प्रभाव इतना सघन था कि ग्रामीण समाज में जनजागृति का वातावरण बनता हुआ दिखाई पड़ता था।

इन पहलुओं के साथ-साथ हमारी कमज़ोरियां भी अनेक थीं। जैसे - कुछ ज़िलों में पार्टी सदस्यों के बीच मतभेद उभरना, विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य का समेकन न हो पाना (हालांकि साक्षरता अभियान के दौरान कहीं-कहीं विज्ञान प्रसार की गतिविधियां होती थीं)।
         
साधनों की उपलब्धता ने व्यक्तियों के बीच गहरी समझ और तालमेल को रिप्लेस कर दिया क्योंकि साधनों की मदद से लोगों में पहुंचने का कार्य आसान हो गया और आपसी सहयोग से योजनाएं बनाना, क्रियान्वित करना, अनुभवों को सहेजना, समीक्षाएं करना आदि महत्त्वपूर्ण कार्य छूटते गए। इन्हीं कारणों से परियोजनाओं के बाद की स्थिति पर भी स्पष्ट सांझी समझ नहीं बन पाई और अभियानों के बाद सांगठनिक कंसोलिडेशन कम हो पाया। विज्ञान मंच में भी जब परियोजनाओं का दौर शुरू हुआ था तब शुरुआत के समय में तो वैचारिक विमर्श था लेकिन बाद में मात्र ढांचा ही रह गया। इसी तरह साक्षरता अभियान में भी हुआ। इस दौरान सामाजिक हस्तक्षेप की पार्टी की नज़र का भी विखंडन होने लगा। बौद्धिक कार्य और सांगठनिक कार्य के बीच एक रेखा उभरने लगी जिसके चलते फ़ील्ड बनाम विचारधारात्मक कार्य की बाइनरी बनती चली गई। शीर्ष के नेतृत्वकारी साथियों के बीच वैचारिक मतभेद बने जो उनके आपसी संबंधों को भी प्रभावित करने लगे। इस समय तक भी पार्टी ने परियोजनाओं के प्रभावों को गंभीरता से विश्लेषित करके कोई प्रपत्र आदि तैयार नहीं किया था, हालांकि इस बात को रेखांकित किया जाने लगा था कि हमें परियोजनाओं में निहित खतरों और इनसे बनने वाले रुझानों के प्रति अधिक सचेत होकर कार्य करने की ज़रूरत है। विज्ञान मंच की परियोजनाओं और साक्षरता अभियानों की परियोजनाओं के लक्ष्य-उद्देश्यों तथा कार्य-नीति में कुछ अंतर ज़रूर थे, फिर भी सरकारी अनुदान का तत्त्व समान था जो गुणात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था।
         
1995 तक राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में भी मिशनरी प्रेरणा का ह्रास हो चुका था और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी द्वारा निर्मित भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के पास भी साक्षरता अभियानों को कंसोलिडेट करने के लिए ज़रूरी अंतर्दृष्टि का अभाव बनने लगा। ऐसी परिस्थितियों में देश के लगभग 350 ज़िलों में जो पहुंच बनी थी, उनमें से आधे से भी कम ज़िलों में हमारी कोशिशें और गतिविधियां जारी रह पाईं। हरियाणा में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। उदाहरण के लिए पानीपत ज़िले के अभियान के उपरांत हम केवल समालखा खंड के कुछ गांवों में ही सक्रिय रह पाए। परियोजनाओं में भागीदारी खत्म होना और आगे की स्पष्ट योजनाओं के अभाव के चलते एक बार फिर इस क्षेत्र में शिथिलता आने लगी।  राष्ट्रीय स्तर पर भी दृष्टि धूमिल हुई लेकिन वहां के स्तर पर फिर भी राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ तालमेल बना रहा जिसके चलते एक और अवसर मिला। अब की बार प्रौढ़ शिक्षा के लिए शैक्षणिक और रणनीतिक कामों को करने के लिए राज्य संसाधन केंद्रों की स्थापना और संचालन का कार्य प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के अनुभव और साख के चलते 5 राज्यों में संसाधन केंद्र चलाने का कार्य मिला - हरियाणा, मध्य प्रदेश, असम, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश। हरियाणा में पार्टी के स्तर पर एक बार फिर से मंथन शुरू हुआ कि यह केंद्र ले लिया जाए और इसे चलाने के लिए हमारी समझ क्या होनी चाहिए। अब तक हमने परियोजनाओं के अनुभवों को भले ही गहनता के साथ आत्मसात् करके सामूहिक समझ विकसित नहीं की थी परंतु फिर भी यह ज़रूर था कि परियोजनाओं की सीमाओं पर चर्चाएं हो रही थीं जिनका नतीजा यह था कि हमें परियोजना में काम तो करना चाहिए लेकिन समय-समय पर उसकी समीक्षा ज़रूरी है। दूसरी बात जो धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी थी वह यह थी कि परियोजनाओं की सीमाओं में ही रह कर कोई बड़ा समाज-सुधार आंदोलन तो विकसित नहीं किया जा सकता। साक्षरता अभियान में युवा, दलित और महिलाओं की भागीदारी ने एक आंदोलन की संभावनाएं ज़रूर प्रस्तुत कर दी थी। इन संभावनाओं को देखते हुए और परियोजनाओं की सीमाओं को समझते हुए यह विमर्श शुरू कर लिया गया था कि हमें परियोजनाओं में कार्य करने के साथ-साथ एक स्वतंत्र संगठन बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। परियोजनाओं में कार्य करने के अब तक अनुभवों की एक झलक पहले प्रस्तुत की गई है। फिर भी सैद्धांतिक समझ यही जारी रही कि दोनों कार्यों को साथ-साथ चला जाना चाहिए। राज्य संसाधन केंद्र का संचालन हमने 1995 से लेकर 2015 (लगभग 20 वर्षों) तक किया। पहले की परियोजनाओं का अनुभव तो हमारे पास था परंतु इस केंद्र का संचालन संस्थान के रूप में किया जाना था जो पहली बार का ही अनुभव बना। राष्ट्रीय केंद्र ने यह संस्थान हमारे आंदोलन को दिलवाने में तो मदद ज़रूर की लेकिन आगे के कार्यों के लिए वहां से भी दिशा-निर्देशन नहीं हो पाया। हमने यहां अब तक के अनुभवों से जो समझ विकसित की थी, उसके अनुसार कार्य शुरू किया। शुरुआत के समय में ही केंद्र के परिप्रेक्ष्य को लेकर सभी लोगों की राय अलग-अलग थी। पार्टी से बाहर के साथी भी हमारे केंद्र का अहम हिस्सा थे और पार्टी के भीतर के साथियों ने भी मत-भिन्नता थी, फिर भी कार्य हुआ। प्रथम चरण में यह स्पष्ट हुआ कि हमें केंद्र के कार्यों को आंदोलन के साथ न केवल तालमेल के साथ करना चाहिए बल्कि हमें इन तमाम कार्यों को आंदोलन को मज़बूत बनाने की दृष्टि से करना चाहिए। यह दृष्टि मूलतः सही थी परंतु व्यवहार में कुछ अंतर्विरोध भी बन रहे थे जिन्हें पार्टी की कमेटियों में चर्चा करके सुलझाने का कार्य नहीं हो पाया। इसके चलते मतभिन्नताएं, मतभेदों और फिर मनभेदों में बदल गईं। इन परिस्थितियों में जो भी थोड़े-बहुत जनोन्मुखी प्रयोग तथा जन आंदोलन के समरूप कार्य हो भी पाए तो उसके सकारात्मक प्रभाव अपेक्षाकृत कम होते गए और निरुत्साहित करने वाला वातावरण बनता गया। इसके ही फलस्वरूप सामूहिक विवेक के साथ स्वतंत्र संगठन खड़ा करने का कार्य भी ठीक से नहीं हो पाया और केंद्र के संसाधनों का उपयोग भी बेहतर नहीं हो पाया। हालांकि केंद्र के साधनों के ज़रिये ही नाटक और पुस्तकों के क्षेत्र में जनपक्षीय कार्य हुआ। एक पत्रिका भी लगातार प्रकाशित हुई और समाज के शिक्षित मध्य वर्गीय हिस्से में भी हमारी पहुंच बढ़ी। इसके बावजूद आपसी मतभेदों का दुष्प्रभाव पड़ा जिसके चलते स्वतंत्र संगठन बनाने का कार्य भी अवरुद्ध हुआ और साथ ही इन संस्थानों को भी हम आंदोलन का हिस्सा नहीं बना पाए।
     इस दौर में परियोजना बनाम संगठन की बहस छिड़ गई जिसमें द्वंद्वात्मक दृष्टि का अभाव रहा और व्यक्तिगत कार्यों का महिमामंडन होने लगा। आरोप-प्रत्यारोप बने, कुछ पार्टी सदस्यों ने दूसरों को अवरोध के तौर

Tuesday, 10 December 2024

New education policy

 *नई शिक्षा नीति को केन्द्रीय कैबिनेट की मंजूरी।*

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*भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित केन्द्रीय सरकार की कैबिनेट की स्वीकृति के बाद 36 साल बाद देश में नई शिक्षा नीति लागू हो गई ।*

*कैबिनेट ने नई शिक्षा नीति (New Education Policy 2023) को हरी झंडी दे दी है.34 साल बाद शिक्षा नीति में बदलाव किया गया है.नई शिक्षा नीति की उल्लेखनीय बातें सरल तरीके की इस प्रकार हैं:*

*Five Years Fundamental*

*1.  Nursery    @ 4 Years*

*2.  Jr KG        @ 5 Years*

*3.  Sr KG        @ 6 Years*

*4.  Std 1st     @ 7 Years*

*5.  Std 2nd    @ 8 Years *

*Three Years Preparatory*

*6.  Std 3rd     @ 9 Years*

*7.  Std 4th     @10 Years*

*8.  Std 5th     @11 Years*

*Three Years Middle*

*9.  Std 6th     @ 12 Years*

*10.Std 7th     @ 13 Years*

*11.Std 8th     @ 14 Years *

*Four Years  Secondary*

*12.Std 9th     @ 15 Years * 

*13.Std SSC    @ 16 Years * 

*14.Std FYJC  @ 17Years*

*15.STD SYJC @18 Years*


*खास बातें :*

*#केवल 12वीं क्‍लास में होगा बोर्ड*

*★MPhil होगा बंद, कॉलेज की डिग्री 4 साल की*

> *■10वीं बोर्ड खत्‍म.*

*◆अब 5वीं तक के छात्रों को मातृ भाषा, स्थानीय भाषा और राष्ट्र भाषा में ही पढ़ाया जाएगा. बाकी विषय चाहे वो अंग्रेजी ही क्यों न हो, एक सब्जेक्ट के तौर पर पढ़ाया जाएगा।*

*●पहले 10वी बोर्ड की परीक्षा देना अनिवार्य होता था, जो अब नहीं होगा.*

*★ 9वींं से 12वींं क्लास तक सेमेस्टर में परीक्षा होगी. स्कूली शिक्षा को 5+3+3+4 फॉर्मूले के तहत पढ़ाया जाएगा।*

*■वहीं कॉलेज की डिग्री 3 और 4 साल की होगी. यानि कि ग्रेजुएशन के पहले साल पर सर्टिफिकेट, दूसरे साल पर डिप्‍लोमा, तीसरे साल में डिग्री मिलेगी.।*

*◆3 साल की डिग्री उन छात्रों के लिए है जिन्हें हायर एजुकेशन नहीं लेना है. वहीं हायर एजुकेशन करने वाले छात्रों को 4 साल की डिग्री करनी होगी. 4 साल की डिग्री करने वाले स्‍टूडेंट्स एक साल में  MA कर सकेंगे.*

*●MA के छात्र अब सीधे PHD कर सकेंगे.*

*★स्‍टूडेंट्स बीच में कर सकेंगे दूसरे कोर्स. हायर एजुकेशन में 2035 तक ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो 50 फीसदी हो जाएगा. वहीं नई शिक्षा नीति के तहत कोई छात्र एक कोर्स के बीच में अगर कोई दूसरा कोर्स करना चाहे तो पहले कोर्स से सीमित समय के लिए ब्रेक लेकर वो दूसरा कोर्स कर सकता है.*

*■हायर एजुकेशन में भी कई सुधार किए गए हैं. सुधारों में ग्रेडेड अकेडमिक, ऐडमिनिस्ट्रेटिव और फाइनेंशियल ऑटोनॉमी आदि शामिल हैं. इसके अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में ई-कोर्स शुरू किए जाएंगे. वर्चुअल लैब्स विकसित किए जाएंगे. एक नैशनल एजुकेशनल साइंटफिक फोरम (NETF) शुरू किया जाएगा. बता दें कि देश में 45 हजार कॉलेज हैं.*

*●सरकारी, निजी, डीम्‍ड सभी संस्‍थानों के लिए होंगे समान नियम।*


*धर्मेंद्र प्रधान*

*शिक्षा मंत्री,*

*भारत सरकार*

Tuesday, 19 March 2024

विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आमंत्रित करना

 

विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आमंत्रित करना

प्रभात पटनायक

जब महात्मा गांधी ने छात्रों से अपने शिक्षण संस्थानों को छोड़ने और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में शामिल होने के लिए कहा था, तो टैगोर ने ऐसा करने की उनकी बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाया था। टैगोर का तर्क था कि एक औपनिवेशिक माहौल में, जहां भारतीयों को शिक्षा के बहुत कम अवसर मिलते थे, यहां तक कि उन कुछ लोगों को भी, जिनके पास शिक्षा तक पहुंच थी, अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए कहने का कोई मतलब नहीं था। गांधी का जवाब था कि औपनिवेशिक सरकार द्वारा स्थापित संस्थानों में भारतीय छात्रों को जो शिक्षा मिल रही थी, वह उन्हें ब्रिटिश राज के सेवक बनने के लिए तैयार करती थी; यह ऐसी शिक्षा नहीं थी जो भारतीय लोगों के किसी काम की थी। और उन लोगों की शिक्षा के लिए, जिन्होंने उनके आह्वान के जवाब में आधिकारिक संस्थानों में अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी, गांधी ने काशी विद्यापीठ और गुजरात विद्यापीठ जैसे कई नए संस्थान स्थापित किए, जो स्वतंत्रता सेनानियों के लिए नर्सरी बन गए।

टैगोर के प्रति गांधी की प्रतिक्रिया ने एक ऐसी समझ प्रकट की जो इसके तात्कालिक संदर्भ से बहुत आगे निकल गई। इसने माना कि शिक्षा ने एक सामाजिक भूमिका निभाई है, ताकि जिस प्रकार की शिक्षा दी गई, वह उस सामाजिक भूमिका से स्वतंत्र हो, जिसके लिए उस शिक्षा के प्राप्तकर्ता को तैयार किया जा रहा था। एक परिणाम के रूप में यह माना गया कि शिक्षा एक समानचीजनहीं है जो एक छात्र को मिलती है, चाहे वह किसी भी संस्थान में गया हो या नहीं।

यह अंतिम बिंदु बहुत महत्वपूर्ण है। एक समरूपचीजके रूप में शिक्षा पर जोर देना किसी भी उत्पीड़क संस्था की ज्ञानमीमांसा के केंद्र में है: एक वर्ग समाज में यह 'ज्ञान' के नाम पर उत्पीड़ित लोगों के दिमाग में शासक वर्ग के आधिपत्य की स्थापना की ओर ले जाता है; एक औपनिवेशिक सेटिंग में यहज्ञानके नाम पर उपनिवेश लोगों के दिमाग में साम्राज्यवाद के आधिपत्य की स्थापना की ओर ले जाता है। यदि शिक्षा एक सजातीयचीजहै, जिसमें ज्ञान नामक एक सजातीयचीजप्रदान करना शामिल है, तो उत्पीड़क संस्था द्वारा स्थापित संस्थानों द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा, जो वास्तव में उत्पीड़न के तथ्य को अस्पष्ट करती है, फिर भी उत्पीड़ित लोगों द्वारा सच्चेज्ञानके रूप में स्वीकार करना होगा। इसलिए इस तरह की शिक्षा उत्पीड़न के शिकार लोगों को उनके उत्पीड़न की वास्तविकता को अस्पष्ट करके उन्हें निरस्त्र करने का काम करती है। एंटोनियो ग्राम्स्की की भाषा में, इस तरह की शिक्षा से शासक वर्ग केजैविक बुद्धिजीवियोंका निर्माण होता है, या, वर्तमान मामले में, इसलिए शिक्षा का शुरुआती बिंदु जो लोगों के लिए उपयोगी है, यह मान्यता होनी चाहिए कि शिक्षा एक समरूपचीजनहीं है, एक ऐसा बिंदु जिसे गांधी ने सराहा था। इसके अलावा, यहांउपयोगिताकी अवधारणा का अर्थ इसकी उपयोगिता से कहीं अधिक गहरा है; इसका संबंध इस बात से है कि क्या शिक्षा वास्तव में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करती है, यानी, एक अखंड वास्तविकता के अध्ययन के लिए तर्क के अनुप्रयोग पर आधारित ज्ञान। मार्क्स ने उल्लेख किया था कि यह उत्पीड़ित वर्ग है जिसकी वैज्ञानिक समझ में हिस्सेदारी है, जबकि उत्पीड़क वर्ग का हित विचारधारा के प्रसार में निहित है जो विज्ञान के विपरीत, उत्पीड़न के अस्तित्व को छुपाने के लिए वास्तविकता को अस्पष्ट करती है।

शिक्षा को एक समरूप चीज के रूप में अस्वीकार करना वास्तव में विज्ञान और विचारधारा के बीच अंतर को चित्रित करने के बराबर है, कि मेरी विचारधारा और आपकी विचारधारा के बीच, या ऐसी विचारधारा के बीच जो लोगों और विचारधारा के लिए आनुभविक रूप से उपयोगी है, जो नहीं है। विज्ञान की खोज लोगों के हित में है; शिक्षा जो विचारधारा के बजाय विज्ञान प्रदान करती है, वह वही है जो लोगों के पास होनी चाहिए।

गांधी द्वारा स्थापित विद्यापीठ केवल रुकने की व्यवस्था थी; स्वतंत्र भारत ने एक संपूर्ण शिक्षा प्रणाली की स्थापना की, जो इस अंतर्निहित स्वीकृति पर आधारित थी कि भारत में शिक्षा महानगर में शिक्षा से अलग होनी चाहिए। यह उस सच्चाई को उजागर करने के लिए समर्पित होना चाहिए, जिसे औपनिवेशिक शोषण की घटना को छिपाने के लिए, कम से कम सामाजिक विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में, महानगर के शैक्षणिक संस्थानों को दबाने में दिलचस्पी थी।

प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी, हालांकि इस तरह के छलावे का कोई कारण नहीं था, और इसलिए महानगर में प्रचलित सामग्री से अलग सामग्री के साथ शिक्षा प्राप्त करने का इस स्कोर का कोई कारण नहीं था, फिर भी इस तरह के अंतर का एक मामला था, जो इस तथ्य से उत्पन्न हुआ कि हमारी प्राथमिकताएं और चिंताएं अलग-अलग थीं। वास्तव में, महान ब्रिटिश वैज्ञानिक, जे.डी. बर्नाल का विचार था कि भारत में पढ़ाया जाने वाला विज्ञान पाठ्यक्रम ब्रिटेन में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम के समान नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारत की जिन समस्याओं का विज्ञान को जवाब देना था, वे बहुत अलग थीं।

यह समझ कि भारत में जो पढ़ाया जाता है वह सामान्य होना चाहिए और महानगर में पढ़ाए जाने वाले समान नहीं होना चाहिए, और इसलिए हमारे शैक्षणिक संस्थानों को महानगरीय संस्थानों का क्लोन नहीं होना चाहिए, स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत में व्याप्त थी। इस दृष्टिकोण के कई परिणाम थे, हालांकि सभी की सराहना नहीं की गई थी। उदाहरण के लिए, एक परिणाम यह था कि महानगरीय संस्थानों को आंकने के लिए तैयार किए गए मानदंडों के आधार पर हमारे संस्थानों के मूल्यांकन पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए; यानी, अगर हमारे संस्थान टाइम्स हायर एजुकेशन सप्लीमेंट द्वारा रैंक किए गए शीर्ष 200 में शामिल नहीं हैं, तो हमें 3% परेशान नहीं होना चाहिए।

यदि शिक्षा एक समरूप चीज नहीं है, तो शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिए एक सामान्य मापदंड नहीं हो सकता है; अलग-अलग मापदंड होने चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे संस्थानों का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए, बस यह कि हमारे संस्थानों का मूल्यांकन करने के लिए हमारे पास अपना खुद का मापदंड होना चाहिए।

भारत में शिक्षाविद अक्सर इस तथ्य से परेशान हो जाते थे कि भारतीय संस्थान विश्व स्तर पर शीर्ष 200 या उससे अधिक में शामिल नहीं थे, जो हमारे संस्थानों की सूई जेनेरिस बनने की आवश्यकता के खिलाफ था। फिर भी, यह धारणा आम तौर पर प्रचलित थी कि हमारी शिक्षा प्रणाली एक जैसी होनी चाहिए, बल्कि इस धारणा की तरह कि हमारे अपने इतिहास के बारे में हमारा नजरिया महानगर में मौजूद इसके दृष्टिकोण से अलग होना चाहिए।

वास्तव में, जब 1947 तक की अवधि से संबंधित आधिकारिक कागजात अवर्गीकृत हो गए, तो ब्रिटिश इतिहासकारों ने संपादित पत्रों के कई खंड निकाले, जिनका शीर्षक था ट्रांसफर ऑफ पावर। इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च, इस शीर्षक की वैचारिक प्रकृति (जिसने इस तथ्य को कम करके आंका कि हमने एक संघर्ष के माध्यम से अपनी स्वतंत्रता जीती) और इसकी सामग्री के चुनाव से अवगत होकर, टुवर्ड्स फ्रीडम शीर्षक के तहत इसी अवधि से संबंधित संपादित पत्रों के दस खंड प्रकाशित करने की योजना बनाई।

यह हमारे जैसे समाज में ज्ञान उत्पादन और प्रसार की प्रकृति के बारे में इस जागरूकता की पृष्ठभूमि के खिलाफ है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में शाखाएं स्थापित करने के लिए आमंत्रित करने का निर्णय पूरी तरह से अस्थिर लगता है। इससे हमारी पहले की यह समझ समाप्त हो जाती है कि शिक्षा एक समरूप चीज नहीं है, एक ऐसी समझ जो गांधी और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में थी- और जो स्वतंत्रता के बाद की शिक्षा नीति का आधार है; यह महानगर और उसके शैक्षणिक संस्थानों द्वारा प्रचारित साम्राज्यवाद की विचारधारा के प्रति समर्पण के समान है। लेकिन फिर यह पूछा जाएगा: क्या यह महानगरीय शिक्षण संस्थानों पर व्यापक और अनुचित निर्णय नहीं है?

                                         II

यह कथन कि महानगरीय शिक्षण संस्थान साम्राज्यवाद की विचारधारा का प्रचार करते हैं, की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। यहां प्रचार की व्याख्या प्रचार के रूप में कच्चे तरीके से नहीं की जानी चाहिए; और यह शब्दों में और चुप्पी के माध्यम से, जो कुछ भी प्रचारित किया जाता है, उसकी समग्रता को संदर्भित करना चाहिए। बेशक महानगरीय संस्थानों में की जाने वाली शैक्षणिक गतिविधियों में अपार छात्रवृत्ति, कर्तव्यनिष्ठा, कड़ी मेहनत और संवेदनशीलता के बारे में प्रशंसा करने के लिए बहुत कुछ है; वास्तव में इन सभी मामलों में वे भारत और अन्य तीसरी दुनिया के देशों के संस्थानों से बहुत आगे हैं। लेकिन इन सभी का उपयोग एक ऐसी धारणा 4 बनाने के लिए किया जाता है, जो संपूर्ण रूप से साम्राज्यवाद के विश्व-दृष्टिकोण के अनुरूप हो। मैं अपने स्वयं के अनुशासन, अर्थशास्त्र से कुछ उदाहरण देता हूं।

हमारी जैसी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन आया है, ताकि हम अविकसित अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो सकें। यह परिवर्तन हमारी अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपा गया था। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी अर्थव्यवस्था हमेशा वैसी नहीं थी जैसी वह बन गई है; उपनिवेशवाद के प्रभाव में यह ऐसी ही हो गई है। लेकिन महानगरीय विश्वविद्यालयों में अविकसितता के पाठ्यक्रमों में, शायद ही किसी ने उपनिवेशवाद के प्रभाव का उल्लेख किया हो। आम तौर पर जोर इस बात पर होगा कि इन अर्थव्यवस्थाओं के साथ ऐसा व्यवहार किया जाए जैसे वे हमेशा से वैसी ही हों जैसी वे आज हैं, और फिर बड़ी सावधानी के साथ उनका विश्लेषण किया जाए और उनकी विशिष्ट विशेषताओं का पता लगाया जाए।

इसी तरह व्यापार सिद्धांत में इस बात पर जोर दिया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सभी भाग लेने वाले देशों के लिए कितना फायदेमंद है, भले ही हम अनुभव से जानते हैं कि व्यापार ने हमारी जैसी अर्थव्यवस्थाओं में विऔद्योगिकीकरण और बेरोजगारी पैदा की है, और आज तक स्थानीय निवासियों पर मांग को कम करके तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं से प्राथमिक वस्तुओं को छीन लेता है।

महानगरीय देशों में सिखाए जाने वाले अर्थशास्त्र अनुशासन की ओर से किया जाने वाला पूरा प्रयास पूंजीवादी विकास को एक आत्मनिर्भर घटना के रूप में दिखाना है, जिसमें “बाहरी क्षेत्रों, यानी किसी भी साम्राज्यवाद के अधीन होने की आवश्यकता नहीं है। साम्राज्यवाद की घटना को पहचानने और इसके लिए स्पष्टीकरण खोजने के बजाय, इस घटना को आर्थिक विश्लेषण के ब्रह्मांड से बाहर रखने का प्रयास किया जाता है; यदि इसे बिल्कुल भी पहचाना जाता है, तो इसका श्रेय किसी आर्थिक उद्देश्य को नहीं, बल्कि राजनीतिक उन्नति जैसे गैर-आर्थिक कारकों को दिया जाता है, यदि “श्वेत व्यक्ति के बोझ को अंजाम देने की इच्छा नहीं है।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को अनिवार्य रूप से आत्मनिर्भर के रूप में देखने की इस प्रवृत्ति की स्पष्ट अभिव्यक्ति, जिसमें बाहरी क्षेत्रों को अपने अधीन करने के लिए कोई आर्थिक मजबूरी नहीं है, आर्थिक विकास के “मुख्यधारा सिद्धांत में पाया जा सकता है। इसका मानना है कि एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था समय के साथ एक विकास दर पर स्थिर होती है, जो “दक्षता इकाइयों में उसके कार्य-बल की वृद्धि की दर से निर्धारित होती है (यानी, कार्य-बल की वृद्धि की स्वाभाविक दर और तकनीकी प्रगति के माध्यम से श्रम उत्पादकता में वृद्धि के कारण कार्यबल में प्रभावी वृद्धि)। यह एक अविश्वसनीय स्तर की ठगी के बराबर है।

जब पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दुनिया भर में लाखों लोगों को स्थानांतरित किया गया है, तो यह दावा करना कि किसी भी महानगरीय देश में पूंजी संचय उस देश के भीतर कार्य-बल की वृद्धि की दर को आसानी से समायोजित कर लेता है, अज्ञानता की पराकाष्ठा है। यह अस्पष्ट है कि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से पहले की अवधि में 20 मिलियन से अधिक गुलामों को अफ्रीका से नई दुनिया में क्यों ले जाया गया था, या क्यों उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य और प्रथम विश्व युद्ध के बीच पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगभग 50 मिलियन भारतीय और चीनी श्रमिकों को कुली या गिरमिटिया मजदूरों के रूप में अन्य उष्णकटिबंधीय और अर्ध-उष्णकटिबंधीय भूमि में स्थानांतरित किया गया था।

यहां सुझाव यह नहीं है कि छात्रों को इन विचारों से अवगत नहीं कराया जाना चाहिए। उन्हें कई तरह के विचारों से अवगत कराया जाना चाहिए, जिनमें वे विचार भी शामिल हैं जिन्हें कोई झूठा और क्षमाप्रार्थी मानता है। संक्षेप में मुद्दा “मुख्यधारा के बुर्जुआ अर्थशास्त्र के शिक्षण को बाहर करना नहीं है; मुद्दा यह है कि ऐसी स्थिति को रोका जाए जहां अकेले ऐसे अर्थशास्त्र को पढ़ाया जाता है, जैसा कि महानगरीय विश्वविद्यालयों में होता है, क्योंकि यह शुद्ध विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है न कि विज्ञान का। और जैसा कि मैंने नीचे तर्क दिया है, विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में शाखाएं स्थापित करने के लिए आमंत्रित करने का मतलब यह होगा कि ऐसे अर्थशास्त्र को केवल इन विदेशी ऑफ-शूट में ही नहीं, बल्कि समय के साथ, घरेलू शैक्षणिक संस्थानों में भी पढ़ाया जाएगा।

यह कहने का मतलब यह नहीं है कि महानगरीय विश्वविद्यालय केवल उन लोगों द्वारा बनाए जाते हैं जो केवल बुर्जुआ विचारक हैं। इसके विपरीत, उनके संकायों में बहुत बड़ी संख्या में विद्वान हैं, जो न केवल अपने शोध में सावधानी बरतते हैं बल्कि अपने प्रयासों में ईमानदार भी हैं। हालांकि वे अनिवार्य रूप से “पेशे की मांगों के कारण विवश हो जाते हैं, ताकि अध्ययन के कुछ क्षेत्रों तक पहुंचने पर कुछ प्रश्न पूछने से इंकार किया जा सके; ऐसा करने से पेशे के भीतर आगे बढ़ने की किसी व्यक्ति की संभावनाएं खतरे में पड़ जाती हैं, या यहां तक कि किसी व्यक्ति के रोजगार पाने की संभावनाएं भी खतरे में पड़ जाती हैं। यह वह है जो कई उत्कृष्ट विद्वानों के उन क्षेत्रों में शिक्षण और अनुसंधान में लगे रहने के विरोधाभास की व्याख्या करता है, जो अनिवार्य रूप से, और काफी हद तक अनजाने में, साम्राज्यवाद को विश्लेषण से बाहर करके वास्तविकता को अस्पष्ट कर देता है।

अब, भारत में स्थापित विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं किसी भी भारतीय निकाय द्वारा तैयार किए गए पाठ्यक्रम को नहीं पढ़ाएंगी; वे अपने स्वयं के पाठ्यक्रम को पढ़ा रहे होंगे जो मोटे तौर पर महानगर में उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम पर आधारित होगा। वास्तव में यही माना जाता है कि उनकी “विपणन योग्यता और इसलिए भारतीय छात्रों के लिए उनका आकर्षण भी है। लेकिन, इसका मतलब यह है कि वे एक ऐसा पाठ्यक्रम पढ़ा रहे होंगे जो साम्राज्यवाद की विचारधारा से ओतप्रोत हो, इस अर्थ में कि कम से कम साम्राज्यवाद की किसी भी अनुभूति को छोड़कर; और जैसा कि हमने देखा है, इस तरह का बहिष्कार अपने आप में साम्राज्यवाद की विचारधारा का हिस्सा है।  और चूंकि दो अलग-अलग पाठ्यक्रम बनाए नहीं रखे जा सकते हैं, सिवाय अस्थायी रूप से, एक ऐसी दुनिया में जहां छात्रों को दुर्लभ नौकरियों के लिए एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मजबूर किया जाता है, साम्राज्यवादी विचारधारा से ओतप्रोत पाठ्यक्रम और देश में स्थापित विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाओं में पेश किया गया है, समग्र रूप से शैक्षणिक संस्थानों पर हावी हो जाएगा (इसमें कोई संदेह नहीं है, घरेलू शैक्षणिक संस्थानों में हिंदुत्व विचारों के मिश्रण के साथ)।

यहां ध्यान देने योग्य दो और बिंदु हैं। एक तो समाजशास्त्रीय प्रकृति का है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि तीसरी दुनिया की संस्थाओं को तीसरी दुनिया के साहित्यकार खुद महानगर की संस्थाओं से “हीन मानते हैं, जो मध्यवर्गीय चेतना पर साम्राज्यवाद के आधिपत्य का एक लक्षण है। इस आधिपत्य के बारे में जागरूकता होने पर ही “श्रेष्ठता और “हीनता के संदर्भ में यह आदेश पृष्ठभूमि में वापस आ सकता है, लेकिन सामान्य समय में यह व्यापक होता है। छात्रों में अंततः वहाँ बसने के उद्देश्य से महानगर में अध्ययन करने की महत्वाकांक्षा होती है; शिक्षकों के बीच किसी तरह वहाँ प्रवास करने की इच्छा होती है, यदि स्थायी रूप से नहीं तो कम से कम यथासंभव लंबे समय तक। इसलिए, भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाओं की स्थापना से इन शाखाओं को महानगर में स्थानांतरित करने के लिए संभावित कदम बन जाएंगे..

शिक्षकों और छात्रों दोनों के दिमाग में एक पदानुक्रम विकसित होगा, जहां वरीयता के संदर्भ में क्रम होगा: पहला, महानगरीय संस्थान; दूसरा, भारत में उनकी शाखाएं; और तीसरा, स्वदेशी संस्थान। इस तरह की धारणा, महानगरीय सामाजिक और वैचारिक आधिपत्य को मजबूत करने के अलावा, देश में शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता को भी नष्ट कर देगी: स्वदेशी संस्थानों में रहने वाले लोग हमेशा के लिए महानगरीय संस्थानों की स्थानीय शाखाओं में जाने की कोशिश करेंगे, जबकि इन शाखाओं में रहने वाले लोग हमेशा के लिए महानगर में ही जाने की कोशिश करेंगे। और चूंकि सभी इस तरह पलायन नहीं कर सकते हैं, इसलिए जो लोग अपने मूल संस्थानों में रह गए हैं, वे बहुत निराश और हतोत्साहित रहेंगे, जिनसे शायद ही किसी उत्कृष्टता की आकांक्षा की उम्मीद की जा सकती है।

कुछ हद तक यह पहले से ही हो रहा है, कई निजी विश्वविद्यालय जो देर से आए हैं, अपने संकाय के कम से कम एक हिस्से को विदेशी विश्वविद्यालयों से मुलाक़ात के आधार पर आकर्षित करते हैं, इस तरह की “मध्यवर्ती भूमिका निभा रहे हैं; विदेशी विश्वविद्यालयों के वास्तविक प्रवेश के साथ इस “कंधे पर हाथ फेरने वाले रवैये को और मज़बूत किया जाएगा। और इस तरह का रवैया हमारे शिक्षण संस्थानों, दोनों स्वदेशी और “कदम-पत्थर वाले, को हमेशा के लिए औसत दर्जे की ओर ले जाएगा।

दूसरा मुद्दा इस तथ्य से संबंधित है कि अमेरिका और महानगर में अन्य जगहों पर कैंपस ऐसे स्थान हैं जहां सैन्य अनुसंधान का एक अच्छा सौदा किया जाता है। वियतनाम युद्ध के दौरान छात्र आंदोलन द्वारा इस तरह के शोध का बहुत विरोध किया गया था, जिसके कारण एक निश्चित विराम था; लेकिन हाल ही में इस तरह के शोध का पुनरुत्थान हुआ है (एमआर ऑनलाइन, 12 मई में “पेंटागन विश्वविद्यालय परिसरों को फिर से उपनिवेश बना रहा है लेख देखें)।

महानगरीय परिसरों पर इस तरह के शोध का विरोध, जैसे रोगाणु युद्ध, या कृत्रिम बुद्धिमत्ता, या नई हथियार प्रणालियों पर, फिर से बढ़ सकता है, जिसके कारण इसे तीसरी दुनिया में अपना स्थान स्थानांतरित करने के लिए “सुरक्षित माना जा सकता है, जहां कम जागरूकता और 7 शत्रुता होगी। इसके बाद विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं ऐसे शोध के स्थानों के रूप में उभर सकती हैं, जो विदेशी संकाय अपने गृह संस्थानों से जाकर संचालित करते हैं। इस शोध में आम तौर पर गंभीर स्वास्थ्य संबंधी खतरे या नैतिक आपत्तियां शामिल होंगी।

 

                                             III

महानगरों से अलग हमारे अपने शिक्षण संस्थानों के निर्माण से हटकर उन्हें हमारे अपने संस्थानों के लिए “मॉडल के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित करने तक का ऐसा परिवर्तन क्यों हुआ है? यह बदलाव, जो वास्तव में एक सामाजिक संदर्भ के रूप में शिक्षा की धारणा से हटकर, एक समरूप चीज़ के रूप में शिक्षा की धारणा (जिसका गांधी ने विरोध किया था) में बदलाव भी है, नई शिक्षा नीति के साथ नहीं आया है। यह बदलाव, जो मार्क्सवाद की धारणा में, विज्ञान और विचारधारा के बीच के अंतर को मिटाने के बराबर है, नई नीति से काफी पहले का है और नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का एक आवश्यक संगत है।

नव-उदारवाद वैश्वीकृत पूंजी के आधिपत्य को मजबूर करता है; यह हर जगह एक अनुकूल वातावरण के निर्माण को देखता है, एक ऐसा वातावरण जो इस पूंजी को अपने घरेलू आधार, यानी महानगर में, अविकसितता के लिए रामबाण के रूप में मिलता है। अगर ऐसी ही स्थितियां कहीं और बनाई जाती हैं, तो ही पूंजी ऐसे स्थानों पर जाकर उत्पादन इकाइयां स्थापित करेगी। और इन समान स्थितियों में समान शैक्षणिक संस्थान शामिल हैं।

दूसरे शब्दों में कहें, तो वैश्वीकृत पूंजी के लिए एक वैश्वीकृत टेक्नोक्रेसी की आवश्यकता होती है, और इसलिए एक वैश्वीकृत शिक्षा प्रणाली जो इस तरह के वैश्वीकृत, और इसलिए समरूप, टेक्नोक्रेसी का उत्पादन करती है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली महानगर में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के समान ही हो, और इसलिए जितनी संभव हो वैसी ही हर जगह प्रचलित हो। संक्षेप में, इसके लिए शिक्षा प्रणाली को उसके विशिष्ट सामाजिक संदर्भ से अलग करने की आवश्यकता है, बजाय इसके कि यह उस विशिष्ट सामाजिक संदर्भ में निहित हो, जैसा कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष चाहता था।

शिक्षा के जिस प्रतिमान का हमने ऊपर उल्लेख किया है, उसे वैकल्पिक रूप से शिक्षा की उस धारणा से एक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है, जो एक स्वतंत्र भारत के लोगों के “जैविक बुद्धिजीवियों को पैदा करती है, और जो अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के “जैविक बुद्धिजीवियों का उत्पादन करती है। और ऊपर बताई गई बात का मतलब यह है कि अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी के “जैविक बुद्धिजीवियों के बीच, जो देश में बने रहेंगे, वे आम तौर पर औसत दर्जे के होंगे, क्योंकि अधिक नवोन्मेषी लोगों को महानगर में प्रवास करने की अनुमति दी जाएगी, जहां उन्हें महानगरीय संस्थानों में समायोजित किया जाएगा।

संक्षेप में विचार यह है कि राज के नौकरों, अर्थात् वैश्वीकृत पूंजी के नौकरों के आधुनिक समकक्षों का निर्माण किया जाए। इस 8 उद्देश्यों के लिए एक शिक्षा प्रणाली बनाई जानी चाहिए जिस तर्ज पर गांधी और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष ने भारतीय लोगों के लिए बेकार समझा था। इसके अलावा, इस वैश्विक शिक्षा प्रणाली के भीतर जो भी रचनात्मकता संभव है, वह महानगर में घटित होगी; हमारी शिक्षा प्रणाली महानगर में विकसित विचारों के स्थानीय प्रसार के लिए बस एक माध्यम बनकर रह जाएगी।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आमंत्रित करने के लिए मुख्य सामाजिक समर्थन, सामान्य रूप से नव-उदारवाद के लिए, शहरी उच्च मध्यम वर्ग से (बड़े पूंजीपतियों के अलावा) आता है, जिसमें पेशेवर और उच्च वेतनभोगी शामिल हैं। यह समूह नव-उदारवादी शासन का एक महत्वपूर्ण लाभार्थी रहा है। वास्तव में, पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने इस आधार पर विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आमंत्रित करने की नीति का बचाव किया था कि तब भारतीय छात्रों को ऐसे विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने के लिए विदेश नहीं जाना पड़ेगा; वे देश के भीतर ही बहुत कम लागत पर विदेशी शिक्षा का लाभ प्राप्त कर सकेंगे.. सिब्बल स्पष्ट रूप से गरीब या वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों का जिक्र नहीं कर रहे थे; उनका संदर्भ मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए था, जो अब हार्वर्ड जाने के लिए भुगतान की जाने वाली राशि के एक अंश पर हार्वर्ड की शिक्षा प्राप्त करेंगे।

नव-उदारवाद के तहत रोजगार के जो अवसर खुले, उससे काफी हद तक इस विशेष वर्ग को फायदा हुआ, और वह शिक्षा के प्रतिमान को बदलकर वैश्वीकृत पूंजी के अनुकूल दिशा में अपने अवसरों का विस्तार करना चाहता है। वास्तव में, यदि भारत वैश्वीकृत पूंजी की संतुष्टि के लिए शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में तीसरी दुनिया के अन्य देशों की तुलना में आगे बढ़ सकता है, तो वह अन्य देशों में भी इसके संचालन के लिए ऐसी पूंजी के लिए आवश्यक टेक्नोक्रेसी का उत्पादन कर सकता है।

                   IV

इस तरह का प्रतिमान फासीवादी हिंदुत्व शक्तियों के बौद्धिक-विरोधी ताकतों को समायोजित करने में पूरी तरह सक्षम है। हिंदुत्व समुदाय को विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाओं के पाठ्यक्रम में जगह नहीं मिल सकती है, लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय की शाखाओं से उधार लिए जाने वाले पाठ्यक्रम के अलावा, यह स्वदेशी शिक्षण संस्थानों में भी व्याप्त होगा। घरेलू शिक्षण संस्थानों में छात्रों और शिक्षकों का “चिप-ऑन-द-शोल्डर तब और भी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि वे विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाओं में स्थित अपने साथियों के कट्टर रवैये के लिए शांत, उपहास, अवमानना के बारे में जागरूक हो जाएंगे। उनका मनोबल, भले ही वे अल्पसंख्यकों के प्रति शत्रुता से संक्रमित हो जाएंगे, और भी बड़ा हो जाएगा। और नव-उदारवादी शिक्षा का आदर्श स्थापित करने वाली संस्थाओं के बीच पदानुक्रम और भी स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन वे सह-अस्तित्व में रह सकते हैं और रहेंगे।

नव-उदार-नव-फासीवादी गठबंधन का एक प्रतिरूप, जिसने राजनीति पर आधिपत्य हासिल कर लिया है, इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित किया जा सकता है, इस गठबंधन के दो ध्रुवों के बीच तत्काल कोई विरोधाभास नहीं होने के कारण, शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित किया जा सकता है।

हालांकि विडंबना यह है कि शिक्षा में नव-उदारवादी प्रतिमान की ओर यह बदलाव ऐसे समय में हो रहा है जब नव-उदारवाद खुद संकट में है, जब नव-उदारवाद को पार करने की आवश्यकता ऐतिहासिक एजेंडे पर है और इसके बजाय शिक्षा को इस तरह के बदलाव के लिए आधार तैयार करने के साथ-साथ रोडमैप तैयार करने का काम सौंपा जाना चाहिए। साम्राज्यवादी विचारधारा का वर्चस्व कायम होना किसी भी मामले में देश के लिए नुकसानदेह है; लेकिन यहां तक कि यह तर्क भी कि आबादी के कम से कम एक वर्ग को रोजगार प्रदान करने वाले प्रक्षेपवक्र को हासिल करना आवश्यक है, वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता खो चुकी है।

यह तथ्य कि नव-उदारवादी पूंजीवाद के पास जो भी ताकत थी, वह अब पूंजीवाद के सबसे उत्साही रक्षकों द्वारा भी पहचानी जाती है। लॉरेंस समर्स, अमेरिका के पूर्व ट्रेजरी सेक्रेटरी और एक कट्टर बुर्जुआ अर्थशास्त्री, अब सिस्टम को प्रभावित करने वाले “धर्मनिरपेक्ष ठहराव के बारे में बात कर रहे हैं, यह विचार कई अन्य बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों द्वारा साझा किया गया है। अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने की उम्मीद में अमेरिका में अपनाई गई “आसान धन नीति के परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति में तेजी आई है, जिससे ब्याज दरों में बढ़ोतरी हुई है, और इसका मुकाबला करने के लिए विश्वव्यापी मंदी की इंजीनियरिंग को मजबूर किया गया है। वर्तमान संकट को दूर करने के लिए नव-उदारवादी पूंजीवाद से आगे जाना आवश्यक है, जिसके लिए हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली का साम्राज्यवाद की विचारधारा के अधीन होना, जो “उदारीकरण के गुणों का प्रचार करती है, हमें विशेष रूप से तैयार नहीं करती है।

हालांकि यह एक गहरा सवाल खड़ा करता है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था, न कि केवल नव-उदारवादी पूंजीवाद, जो सभी के लिए रोजगार प्रदान नहीं करती है, अनिवार्य रूप से शिक्षा प्रणाली को रोजगार के प्रावधान का एक मात्र साधन बना देगी और इस तरह स्वतंत्र भारत के लोगों के “जैविक बुद्धिजीवियों के निर्माण की इसकी व्यापक सामाजिक भूमिका को नष्ट कर देगी। यहां तक कि एक सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली, जो निश्चित रूप से शिक्षा के कमोडिटाइजेशन को रोकने के लिए जरूरी है, एक ऐसे समाज में जहां काफी बेरोजगारी है, निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगी: इसके चारों ओर एक उद्योग बनाया जाएगा, जो छात्रों को कोचिंग कक्षाओं के माध्यम से नौकरी पाने में मदद करने का वादा करता है, और इसी तरह।

दूसरे शब्दों में, शिक्षा के कमोडिटाइजेशन को रोकने के लिए बेशक सार्वजनिक शिक्षा के व्यापक प्रावधान की आवश्यकता है; लेकिन इसके लिए कुछ और भी आवश्यक है, अर्थात्, छात्रों के दिमाग से रोजगार के संबंध में असुरक्षा का उन्मूलन, ताकि वे खुद को पूरी तरह से विचारों की खोज के लिए समर्पित कर सकें। शिक्षा की सामाजिक भूमिका अनिवार्य रूप से शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली के विपरीत है जो केवल नौकरी पाने के लिए 10 तैयार है; और नौकरी की असुरक्षा वाले समाज में बाद वाला हमेशा पहले वाले को पछाड़ेगा।

लेकिन चूंकि नौकरी की असुरक्षा केवल एक समाजवादी समाज में समाप्त हो जाती है, जहां श्रम की एक न्यूनतम रिजर्व सेना को बनाए रखने का सवाल ही नहीं उठता है, पूंजीवाद के तहत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की तो बात ही छोड़ दें, क्या इसका मतलब यह है कि पूंजीवाद के तहत शिक्षा सुधारों की मांग करने के बजाय, हमें केवल समाजवाद की शुरुआत करने के लिए प्रैक्सिस से चिंतित होना चाहिए? इसका जवाब नकारात्मक में होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली की मांग, जो लोगों के “जैविक बुद्धिजीवियों को पैदा करती है, को पूंजीवाद के भीतर ही उठाया जाना चाहिए, और समाजवाद की मांग से बिल्कुल अलग होना चाहिए।जबकि पूंजीवाद बेरोजगारी को दूर नहीं कर सकता है, रोजगार का अधिकार, जिसके असफल होने पर बेरोजगारी के मुआवजे के रूप में वैधानिक रूप से निश्चित वेतन का अधिकार, पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर भी, न केवल रोजगार असुरक्षा पर काबू पाने के साधन के रूप में, बल्कि एक उपयुक्त शिक्षा प्रणाली बनाने के साधन के रूप में भी मांग की जा सकती है, और इसकी मांग पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर भी की जानी चाहिए।

दूसरे शब्दों में, शिक्षा के सार्वभौमिक अधिकार के लिए संघर्ष को शैक्षिक सुधारों के हिस्से के रूप में रोजगार के सार्वभौमिक अधिकार के लिए संघर्ष के साथ पूरक होना चाहिए, भले ही हम वर्तमान में कल्पना की जा रही विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का विरोध करते हैं।