संघ का शिक्षा एजेंडा :
न पढेंगे पढ़ने देंगे
० राजेंद्र शर्मा
यह संयोग हर्गिज नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस की स्थापना की शताब्दी के इस वर्ष में शिक्षा का क्षेत्र और उसमें भी खासतौर पर आरंभिक शिक्षा का क्षेत्र, लगातार खबरों में है। जाहिर है कि शिक्षा का यह क्षेत्र किन्हीं अच्छे कारणों से खबरों में नहीं है। यह नकारात्मक विवादों के लिए खबरों में है। इस क्रम में ताजातरीन विवाद, देश भर में स्कूली पाठ्यक्रमों के लिए मानक पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकें तैयार करने वाली केंद्रीय संस्था, राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद या एनसीईआरटी द्वारा आठवीं तक की कक्षाओं के लिए जारी की गई सामाजिक विज्ञान की और उसमें भी विशेष रूप से इतिहास की पाठ्य पुस्तकों को लेकर उठा है।
विवादित पाठ्य पुस्तकों में, इन्हीं विषयों की पिछली पाठ्य पुस्तकों से जो भारी बदलाव किए गए हैं, उनका मुख्य मकसद भारतीय इतिहास की और विशेष रूप से मध्यकालीन इतिहास को आरएसएस की सांप्रदायिक धारणाओं तथा आग्रहों को, लड़कपन की उम्र से ही बच्चों के मन में, इतिहास के रूप में बैठाना है। सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए की गई कतरब्योंत में मुस्लिम शासकों के दौर पर खासतौर पर कैंची चलाई गई होगी। यहां तक कि टीपू सुल्तान और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उसकी लड़ाइयों का जिक्र तक, सिरे से गायब कर दिया गया है। सभी जानते हैं कि अपने राजनीतिक बाजुओं के जरिए, आरएसएस को जब भी देश की सत्ता तक किसी भी तरह से पहुंच हासिल हुई है. उसने बच्चों की पाठ्य पुस्तकों के सांप्रदायिक पुनर्लेखन पर खास ध्यान दिया है।
इस सिलसिले की औपचारिक शुरूआत तो 1978 में ही हो गई थी, जब इमर्जेंसी राज की हार के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार के माध्यम से, पहली बार आरएसएस के राजनीतिक बाजू, जनसंघ को केंद्र में सरकार तक पहुंच हासिल हुई थी। यह दूसरी बात है कि आरएसएस से संबंध के रूप में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर, इमर्जेंसी के विरोध के आधार पर बनी जनता पार्टी में विभाजन हो गया, जिसका जनसंघ घातक नई राजनैतिक पार्टी का हिस्सा रहते हुए भी, आरएसएस के प्रति वफादारी में बनाए रखने की छूट चाहता था। इस विभाजन के चलते जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई और चौतरफा विरोध के चलते जिसमें खुद जनता पार्टी के दूसरे घटकों में से विरोध भी शामिल था , स्कूली पाठ्य पुस्तकों का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने की ये शुरुआती कोशिशें भी ज्यादा असर नहीं दिखा पाई।
इन कोशिशों को बड़ा बढ़ावा मिला 1998 में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद। वाजपेयी सरकार में शिक्षा मंत्रालय, मुरली मनोहर जोशी ने संभाला, जो एक ओर अगर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे थे, तो दूसरी ओर आरएसएस के बहुत पुराने स्वयंसेवक थे। 2004 तक चले इस दौर में बाकायदा इतिहास के पुनर्लेखन की घोषणाएं की गयीं और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में काट-छांट से लेकर, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र जैसे पोंगापंथी विषयों को विधिवत पाठ्यक्रम में स्थान दिलाए जाने की शुरूआत की गयी। फिर भी, अब जो हो रहा है उसे देखते हुए, यह कहना ही पड़ेगा कि इतिहास का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने में मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में शिक्षा मंत्रालय को तब, कोई बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल पायी थी। बेशक, इसका संबंध इससे भी है कि इन कोशिशों का राजनीतिक ही नहीं अकादमिक हल्कों से भी जो तीखा विरोध हो रहा था, उसकी थोड़ी-बहुत प्रतिध्वनि तत्कालीन सरकार में भी सुनाई देती थी, जो गठबंधन की मजबूरियों से भी मुक्त नहीं थी। फिर भी शिक्षा की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक धारा को इस दौर में इतनी चोट तो पहुंचा ही दी गयी थी कि स्कूली शिक्षा को उसके धक्के से उबारते हुए, दोबारा पटरी में लाने के लिए, यूपीए के राज में काफी बड़ी कवायद करनी पड़ी थी।
2014 से भाजपा के नेतृत्व में, गठबंधन की मजबूरियों से मुक्त और आरएसएस के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से युक्त सरकार आने के बाद से, 2004 में अधूरे छूट गए इतिहास के सांप्रदायिक पुनर्लेखन को आम तौर पर और स्कूली शिक्षा में खासतौर पर, ताबड़ तोड़ आगे बढ़ाया गया है। आठवीं कक्षा तक की पाठ्य पुस्तकों का लगभग पूर्ण सांप्रदायीकरण, जिस पर इस समय बहस सुनाई दे रही है, इसी लंबी प्रक्रिया का नतीजा है। ताजातरीन झटके में, एक ओर तो मुस्लिम शासनों की चर्चा को इतना सिकोड़ दिया गया है कि रजिया सुल्तान तथा नूरजहां जैसे ताकतवर शासकीय व्यक्तियों का जिक्र ही गायब कर दिया गया है, तो दूसरी ओर बाबर से लेकर औरंगजेब तक, सभी मुगल शासकों को आधुनिक अर्थ में क्रूर, दमनकारी तथा धार्मिक अत्याचार करने वाले शासकों के रूप में चित्रित किया गया है और अकबर तक को नहीं बख्शा गया है। उसी परियोजना के दूसरे पहलू के रूप में हिंदू राजाओं के ठीक इन्हीं "गुणों" का जिक्र ही न करते हुए, उनका ज्यादा से ज्यादा महिमा मंडन किया गया है।
लेकिन, बात सिर्फ मुस्लिम शासकों को काले रंग से पोते जाने तक सीमित नहीं रहती है। इससे आगे, बाकायदा एक सामान्यीकरण तक भी जाती है, जिसमें खासतौर पर भारतीय इतिहास के मुस्लिम दौर को " अंधेरे दौर" या अंधकार युग
के रूप में चिन्हित किया गया है। यह सांप्रदायीकरण के सिलसिले को, गुणात्मक रूप से एक नये स्तर पर पहुंचा देता है। दिलचस्प यह है कि आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन के इतिहास की जानकारी नहीं रखने वालों को ही "अंधेरे दौर" की इस खोज में, कुछ भी नया लग सकता है। वास्तव में यह भारतीय इतिहास लेखन के उस पश्चिमी औपनिवेशिक मॉडल की ही नई पैकेजिंग है, जिसमें ब्रिटिश-पूर्व भारतीय इतिहास को मोटे तौर पर मुस्लिम पूर्व प्राचीन काल और मुस्लिम मध्यकाल
में विभाजित किया जाता था। इसमें प्राचीन गौरवपूर्ण या स्वर्णयुग था और मध्यकाल, इस गौरव के हरण का काल यानी इस दृष्टि के हिसाब से हिंदुओं और मुसलमानों के अनवरत टकराव का काल या हिंदुओं के दमन का काल। लेकिन, इस नई पैकेजिंग में भी नया सिर्फ इतना है कि योरपीय इतिहास के काल विभाजन में मध्य युग के लिए "डार्क एज" की जिस संज्ञा का प्रयोग किया जाता है, उसी को उठाकर ज्यों का त्यों अनुवाद करके रख दिया गया है। गैर-प्राचीन भारतीय इतिहास की, योरपीय इतिहास से भिन्नता की कोई थोड़ी-बहुत गुंजाइश अब तक रहती भी थी तो उसे, इस "अंधकार युग" के आयात से पाट दिया गया है।
स्कूली पाठ्य पुस्तकों के इस प्रसंग से ठीक पहले, स्कूली शिक्षा से ही संबंधित जो प्रसंग चर्चा में था, उसका संबंध हजारों की संख्या में सरकारी स्कूलों के बंद किए जाने से है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में यह मामला चर्चा में आया था, जहां इसी साल स्कूलों के मर्जर के नाम पर 5 हजार से ज्यादा स्कूलों के बंद किए जाने की खबर आई है। सत्ताधारी भाजपा के बहुत
ही सख्त मीडिया नियंत्रण के बावजूद, सोशल मीडिया में और थोड़ा-बहुत परंपरागत मीडिया में भी, अपने स्कूल बंद किए जाने के खिलाफ छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के भावुक करने वाले प्रदर्शनों ने ध्यान खींचा है। ये बच्चे रो-रोकर सरकार से गुहार लगा रहे थे कि उनके स्कूल बंद नहीं किए जाएं। इसी क्रम में जगह-जगह पर लगाए गए एक बैनर ने भी ध्यान खींचा- मधुशाला नहीं, पाठशाला ! दरअसल, यह बैनर भी तब वाइरल हुआ जब योगी प्रशासन इस बैनर को हर जगह से हटवाने के लिए, सड़कों पर उतरा।
कहने की जरूरत नहीं है कि मर्जर या तार्किकीकरण आदि, आदि नामों से, छात्रों की संख्या पचास से कम होने के आधार पर, सरकारी स्कूलों को ही बंद करने के इस खेल की, उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में, जहां पढ़ाई का स्तर आम तौर पर काफी दरिद्र है, गरीबों की शिक्षा पर बहुत भारी मार पड़ रही है। याद रहे कि स्कूलों का बंद किया जाना, भाजपा सरकारों की नीति का ही हिस्सा है। तभी तो 2014 से अब तक, देश भर में पूरे 89,441 स्कूल इस तरह से बंद किए जा चुके हैं। और इनमें से 60 फीसद स्कूल भाजपा-शासित मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में ही बंद किए गए हैं। इस सब को देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि 2021 से 2024 के बीच तीन साल में देश भर में, पहली से आठवीं कक्षा तक के दो करोड़ छात्र पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए हैं। उत्तर प्रदेश में ही, जहां इस साल पांच हजार स्कूलों को बंद किया जा रहा है, 2022-23 और 2023-24 के बीच, 1,33,035 सरकारी प्राइमरी तथा मिडिल स्कूलों में, छात्रों के दाखिलों में पूरे 24 लाख की कमी हुई थी। इस तरह, नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के नाम पर, स्कूली शिक्षा के बुनियादी ढांचे को ही ढहाया जा रहा है। जाहिर है कि यह शिक्षा के निजीकरण जैसे राजनीतिक स्वार्थों के लिए झूठे बहाने तलाश करने का ऐसा खेल है, जिसमें छात्रों के वास्तविक हितों की आहुति दी जा रही एनईपी की आड़ में और आरएसएस के एजेंडे के खातिर, स्कूली शिक्षा के ही ध्वस्त किए जाने का ऐसा ही एक और प्रसंग जो पिछले दिनों चर्चा में रहा है, स्कूली शिक्षा में हिंदी थोपे जाने की कोशिशों का है। वैसे यह कोशिश हिंदी थोपने पर ही रुकने वाली नहीं है। जम्मू-कश्मीर से आ रहीं, उप-राज्यपाल के नेतृत्व में राज्य में स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपे जाने की खबरें, इस मुहिम के अगले चरण की ओर इशारा कर देती हैं, जिसमें माध्यम के रूप में लादी जाने वाली एक परायी (मातृभाषा इतर) भाषा का बोझ, शिक्षा के प्रयास की कमर ही तोड़ने जा रहा है। बहरहाल, जैसा कि महाराष्ट्र का पहली कक्षा से हिंदी अनिवार्य करने की कोशिश के व्यापक प्रतिरोध का अनुभव दिखाता है, इस तरह की कोशिशें आसानी से लोगों को हजम होने वाली नहीं हैं। तमिलनाडु के बाद, महाराष्ट्र में भी मोदी सरकार को त्रिभाषा फार्मूला थोपने की अपनी कोशिशों को वापस लेना पड़ा है। लेकिन, जाहिर है कि उस टकराव के बाद, जिसमें आम तौर पर शिक्षा का और खासतौर पर हिंदी का भी नुकसान तो हो चुका था।
लेकिन, सत्ताधारी संघ-भाजपा के लिए, उसकी हिंदी को आगे बढ़ाने की मुहिम भी तो, उसके विभाजनकारी प्रचार का ही हिस्सा, जहां हिंदी को "शासक की भाषा" के रूप में थोपने की कोशिश की जाती है। इससे हिंदी की कितनी प्रगति होती है या दुर्गति होती है, इसकी उन्हें परवाह नहीं है। इसीलिए, वे कभी इसकी चिंता करते नहीं मिलेंगे कि क्या हुआ कि मध्य प्रदेश में तीन साल पहले बड़े तामझाम के साथ, मैडीकल की पढ़ाई हिंदी में कराने के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने तथा धूम-धड़ाके से उनके जारी किए जाने के बाद, अब यह सच सामने आ रहा है कि राज्य के किसी भी मैडीकल कालेज में एक भी छात्र ने हिंदी में परीक्षा नहीं दी है।
लोक लहर
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