Saturday, 16 May 2020

मुनाफ़े के मकड़जाल में फँसा विज्ञान

मुनाफ़े के मकड़जाल में फँसा विज्ञान

डा. अमृत
मेडिकल विज्ञान में हुए विकास के कारण मानवता इस पड़ाव पर पहुँच चुकी है कि प्लेग जैसी बीमारी जो किसी समय यूरोप की एक-तिहाई आबादी को ख़त्म कर देती थी, जिसका डर इतना भयंकर था कि भारत में आम लोग इस बीमारी का नाम भी अपने मुँह पर नहीं आने देते थे, अब पूरी तरह मनुष्य के क़ाबू में है। अनेकों डॉक्टरों तथा वैज्ञानिकों की अथक मेहनत ने मानवता को इस मंज़िल तक पहुँचाया है। परन्तु अब एक बार फिर से आदमी के सामने उसी समय में वापिस पहुँचने का ख़तरा खड़ा हो रहा है, जिसका कारण दवाओं का बिना-ज़रूरत तथा ग़ैर-वैज्ञानिक इस्तेमाल है।
एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक़ भारत दुनिया में रोगाणु-रोधी (एण्टीबायोटिक) दवाओं का सबसे अधिक इस्तेमाल करने वाले देशों में से एक के रूप में उभरकर सामने आया है। 2000-2010 के दशक में भारत में इन दवाओं के इस्तेमाल में 62 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि इसी अरसे में संसार के लिए यह दर 36 प्रतिशत रही है। भारत में हर व्यक्ति एक साल में रोगाणु-रोधी दवाओं की औसत 11 गोलियाँ खा रहा है; मगर ज़मीनी स्तर पर जो हालात हैं, उन्हें देखकर यह आँकड़ा काफ़ी कम लग रहा है। रोगाणु-रोधी दवाएँ खाने में चीन का नम्बर भी भारत के पीछे आता है। वैसे एक अमेरिकी नागरिक एक साल में रोगाणु-रोधी दवाओं की 22 गोलियाँ खाता है (जोकि उसके पहले के वर्षों के मुकाबले कम है), परन्तु वहाँ कुल आबादी कम होने के कारण कुल खपत भारत और चीन से कम है।
greedy-docsरोगाणु-रोधी दवाओं की खपत में बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से इस कारण नहीं हो रही कि लोगों की सेहत-सुविधाओं तक पहुँच पहले से ज़्यादा हो गयी है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि इस बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण दवाओं का बिना-ज़रूरत तथा ग़ैर-वैज्ञानिक इस्तेमाल है। दरअसल, ये दवाएँ एक ख़ास किस्म के रोगाणुओं – बैक्टीरिया के कारण होने वाली बीमारियों (जैसेकि पेचिश, दस्त के कई मामले, टाइफ़ाइड, चमड़ी, फेफड़ों तथा ख़ून के कई इंफ़ैक्शन आदि) में ही ज़रूरी तथा कारगर होती हैं। मगर सारे इंफ़ैक्शन बैक्टीरिया के कारण नहीं होते, बल्कि आधे से ज़्यादा इंफ़ैक्शन (जैसे आम सर्दी-जुकाम, दस्त के आधे से ज़्यादा मामले, बहुत से बुखार जैसे डेंगू, चिकनगुनिया तथा अन्य अनेक वायरल बुखार आदि) एक अलग किस्म के रोगाणु – वायरस की वजह से होते हैं जिनके ऊपर न तो रोगाणु-रोधी दवाओं का कोई असर ही होता है और न ही इन इंफ़ैक्शन में इन दवाओं की कोई ज़रूरत ही होती है। मगर आमतौर पर यही देखा जाता है कि इन सब बीमारियों में, बिना यह देखे कि कारण बैक्टीरिया है या वायरस, एण्टीबायोटिक्स का इस्तेमाल हो रहा है। इससे एक तरफ़ तो आर्थिक नुक़सान होता है, तो दूसरी तरफ़ इन दवाओं के बेकार हो जाने का ख़तरा खड़ा हो गया है, क्योंकि इन दवाओं के अन्धाधुँध इस्तेमाल के चलते बैक्टीरिया की बड़ी संख्या ने इन दवाओं को प्रभावहीन करने के तरीक़े विकसित कर लिये हैं।
मसले के आर्थिक पक्ष की बात करें। भारत जैसे देश में यहाँ दो-तिहाई आबादी को समय पर दवाई नहीं मिलती, बड़ी संख्या में लोगों को सेहत ठीक रखने के लिए ज़रूरी भोजन तक नहीं मिलता, किसी मरीज़ को मेडिकल सुविधा मिल सकेगी या नहीं, इस बात पर निर्भर करता है कि वह दवाई ख़रीद पायेगा या नहीं। ऐसे में बिना ज़रूरत के दवाएँ देना, ख़ासकर मेडिकल विज्ञान के दृष्टिकोण से इतनी अहम तथा जीवन-रक्षक दवाएँ, वैज्ञानिक पक्ष से तो ग़लत हैं ही, साथ ही मानवता के प्रति अपराध भी है। यह सीधा-सीधा आम इंसान की जेब पर झपटमारी है, ऊपर से दवाओं के बुरे प्रभावों के कारण मरीज़ को जो नुक़सान झेलना पड़ सकता है, वह अलग है। इसके अलावा बिना ज़रूरत के इस्तेमाल होने से मानवीय श्रम तथा प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी होती है, वह अलग है। लेकिन आम इंसान की लूट और मानवीय श्रम तथा प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी में ही दवा-कम्पनियों से लेकर डॉक्टरों तक के लम्बे मुनाफ़ाखोरी के नेटवर्क की मोटी कमाई सम्भव है।
दवा-कम्पनी के लिए दवाओं का उत्पादन मुनाफ़े के लिए है, वह हर साल बिक्री के पहले से ज़्यादा “ऊँचे टारगेट” तय करके चलती है और अपने “टारगेट” को पूरा करने के लिए अपने उत्पादों के प्रचार हेतु “विज्ञापनबाज़ों” (जिनको कम्पनियाँ ‘मेडिकल रिप्रेजेण्टेटिव’ के अंग्रेज़ी नाम के पीछे छुपाती हैं) की बड़ी फ़ौज भर्ती करती है। थोक व्यापारी तथा कैमिस्ट अपने ऐजण्ट अलग से रखते हैं जिनका काम “फ़ील्ड” में जाकर हिस्सेदारियाँ तय करते हुए बिक्री श्रृंखला बनाना होता है। इस चेन की अन्तिम कड़ी हैं डॉक्टर, जिनके बारे में जितना कम लिखा जाये, अच्छा है। आम निजी क्लीनिकों, अस्पतालों, नर्सिंग होमों आदि की बात ही क्या करनी, मेडिकल कॉलेजों तक में रोगाणु-रोधी दवाओं के इस्तेमाल के लिए लाजिमी दिशा-निर्देशों की जिस तरह से धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं, आम इंसान सोच भी नहीं सकता। मरीज़ों को रोगाणु-रोधी दवाओं के महँगे-महँगे टीके इसलिए नहीं लगते कि मरीज़ को उनकी हमेशा ज़रूरत ही होती है, बल्कि इसलिए भी लगते हैं कि वार्ड के “डॉक्टरों” को अपना “टारगेट” पूरा करना होता है। ग़ैर-ज़रूरी होना एक बात है, ग़ैर-वैज्ञानिक होना दूसरी बात है अर्थात “टारगेट” पूरा करने के चक्कर में यह भी नहीं देखा जाता कि मरीज़ को दी जा रही दवा बीमारी का कारण बन रहे बैक्टीरिया को कण्ट्रोल करने के लिए सही चुनाव है भी या नहीं, क्योंकि चुनाव का आधार बैक्टीरिया की किस्म, मरीज़ का हित है ही नहीं। ऐसे सीनियर डॉक्टर भी देखने को मिलते हैं जो टीकों की शीशियाँ तक सँभालकर रखते हैं ताकि कैमिस्ट तथा कम्पनी हिसाब-किताब में ‘गड़बड़ी’ न कर सके। अकेले डॉक्टर ही नहीं है जो ग़ैर-ज़रूरी इस्तेमाल के कारण हैं, झोला-छाप डॉक्टर, कैमिस्ट इसका बड़ा कारण हैं। कई रोगाणु-रोधी दवाओं की औक़ात तो अब टाफ़ियों जितनी भी नहीं रही, हर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ में बैठा कैमिस्ट या झोला-छाप डॉक्टर इन दवाओं की मुट्ठी भर-भर आम लोगों को खिला रहा है जिसको नज़रसानी के नीचे लाना मौजूदा प्रबन्ध में असम्भव है।
आर्थिक नुक़सान के अलावा जो दीर्घकालिक और बड़ा नुक़सान समूची मानवता को झेलना पड़ सकता है और कुछ हद तक पहले ही झेलना पड़ रहा है, वह है रोगाणु-रोधी दवाइयों का बेअसर सिद्ध होना। कई रोगाणु-रोधी दवाएँ तो पहले ही नकारा हो चुकी हैं, कइयों की क्षमता कम हो गयी है और कइयों का दायरा सिमट गया है। दवा-रोधी टीबी (क्षयरोग) का सामने आना इसका एक उदाहरण है। टाइफ़ाइड के इलाज में इस्तेमाल होने वाली कई दवाएँ अब इस काम के लायक नहीं रहीं। भारत में अगर सबसे ज़्यादा ग़ैर-ज़रूरी रोगाणु-रोधी दवाएँ लिखी जाती हैं तो यह हर बुखार को टाइफ़ाइड घोषित करके लिखी जाती हैं। टाइफ़ाइड के लिए आम इस्तेमाल होने वाली दवा ‘सिप्रोफ्लोक्सासिन’ तथा इसी श्रेणी की अन्य दवाओं (जो संयोग से सबसे ज़्यादा लिखी जाने वाली रोगाणु-रोधी दवाओं में से एक है) की कारगर-क्षमता अब इसी वजह से कम होती जा रही है। टाइफ़ाइड के लिए कुछ और दवाएँ जैसे ‘सिफ़िगजम (जीफ़ी), सैफ्फ़ट्रेगजोन’ आदि जो टाइफ़ाइड के कुछ ख़ास मामलों के लिए जैसे बच्चों में, गर्भवती औरतों में, ‘सिप्रोफ्लोक्सासिन-रोधी टाइफ़ाइड के इलाज में इस्तेमाल के लिए रिजर्व हैं, अब हर किस्म के बुखार के लिए यहाँ तक कि सिफ़िगजम तो सर्दी-जुकाम के लिए भी लिखी जा रही हैं। यहाँ तक कि झोला-छाप डॉक्टर, कैमिस्ट जिनको रोगाणु-रोधी दवाओं की हरेक श्रेणी तथा हरेक दवा के विशेष इस्तेमाल के पीछे वैज्ञानिक कारण बिलकुल भी पता नहीं होते, वे भी बेहद ऊँचे दर्जे की रोगाणु-रोधी दवाएँ भण्डारे की जलेबियों जैसे बाँटते हैं। नतीजा जो सामने आ रहा है, बहुत डरावना है क्योंकि मानवता को एक बार फिर बिना रोगाणु-रोधी दवाओं के युग में जाना पड़ सकता है।
इस नतीजे को वैज्ञानिक पहचानते भी हैं और देख भी रहे हैं, चेतावनियाँ भी दे रहे हैं। सरकारें भी इसे कण्ट्रोल में लाने का ख़ूब हल्ला-गुल्ला करती हैं, मगर असलियत यह है कि निजी मुनाफ़े पर आधारित मौजूदा पूँजीवादी प्रबन्ध के रहते इसे कण्ट्रोल करना सम्भव नहीं है। सबसे पहले तो दवा-कम्पनियों के मुनाफ़े को क़ाबू में करने की औक़ात किसी सरकार की नहीं है और सरकारों की मंशा भी नहीं है क्योंकि ख़ुद सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी ही तो होती हैं और उसका वजूद ही पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बनाये रखने, और बढ़ाने के लिए है। किसी भी सरकार या चुनावी राजनीतिक दल का इस प्रक्रिया को रोकने में कोई हित भी नहीं है। अगर सरकारों को मानवता का ज़रा भी ख़याल होता तो वह दवाओं के समूचे उत्पादन को निजी हाथों से छीनकर अपने हाथों में लेती तथा दवाइयों की बिक्री में से हर तरह के व्यापारी-एजेण्टों को बाहर कर सीधा लोगों तक सप्लाई चेन बनातीं, मगर यहाँ तो गंगा ही उल्टी बहती है। भारत की सरकारों ने रोगाणु-रोधी दवाएँ बनाने वाली सरकारी फ़ैक्टरियों को कब का बन्द करवा दिया है, मोदी सरकार ने दवाओं की क़ीमतों को भी हर तरह के सरकारी कण्ट्रोल से “आज़ाद” कर दिया है। जब कम्पनियों के मुनाफ़े को कण्ट्रोल करना सम्भव ही नहीं है तो बाक़ी सारी बयानबाज़ी खोखली है। किसी मन्त्री, नेता, नौकरशाह का ऐसा बयान कि कम्पनी के विज्ञापनकर्ता अब डॉक्टरों को ड्यूटी के समय नहीं मिलेंगे, अक्सर ही पढ़ने को मिल जायेगा, मगर इनसे कोई पूछे कि डॉक्टर के घर पर कौन सी मिलिट्री प्लाटून बैठी रहती है कि कम्पनी का एजेण्ट डॉक्टर को उसके घर जाकर नहीं मिल सकता। अगर घर में सीसीटीवी कैमरे भी लगा दिये जायेंगे तो ऐसी “बिज़नेस मीटिंगों” के लिए यह दुनिया छोटी नहीं पड़ जाती। रही बात आम लोगों को शिक्षित करने की, यह काम सरकार तथा डॉक्टर ही कर सकते हैं। सरकार करेगी ही नहीं और डॉक्टरों के पास “समय” कहाँ है। मरीज़ देखने के वक़्त कोई डॉक्टर ऐसा करेगा नहीं क्योंकि इससे तय समय में देखे जाने वाले मरीज़ों की संख्या कम हो जायेगी। लिहाज़ा इससे ओपीडी से होने वाली कमाई भी कम होगी, फिर क्यों कोई ऐसा करेगा, आखि़र कमाई के लिए है वह “सख़्त मेहनत करके” डॉक्टर बना है! अपने काम के बाद लोगों में प्रचार करना, इसकी बहुसंख्या डॉक्टरों से उम्मीद करना चिड़ी का दूध लेके आने के बराबर है। रोगाणु-रोधी दवाओं का ग़ैर-ज़रूरी इस्तेमाल कम करने में आधुनिक टेस्ट, स्कैन अहम भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन एक काम के टेस्टों का उपलब्धता का दायरा बहुत सीमित है, अगर टेस्ट उपलब्ध है तो टेस्टों के लिए होती मोटी वसूली भी एक रुकावट बन जाती है। ऊपर से टेस्टों/स्कैनों का अपना एक “बिज़नेस” है, जिसकी कहानी दवाओं की कहानी से ज़्यादा अलग नहीं है। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि आप कोई भी रास्ता पकड़ेंगे, वह आपको मौजूदा पूँजीवादी प्रबन्ध के द्वार छोड़ जायेगा। इसलिए अगर विज्ञान को मानवता की सेवा में सच्चे अर्थों में लगाना है तो इस पूँजीवादी प्रबन्ध को नष्ट करना ही होगा। निजी सम्पति के ऊपर टिके इस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को किनारे लगाना होगा; यह बात किये बिना किसी भी और ढंग-तरीक़े की बात करना या तो एक बच्चे की बेसमझ इच्छा हो सकती है, या फिर आम लोगों से छल-कपट।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2014

सेमेस्टर प्रणाली

शिक्षा  में  सेमेस्टर  प्रणाली – सुशिक्षित गुलाम तैयार करने का नुस्खा

अमृत
इस साल के अकादमिक सत्र से पंजाब के सभी कॉलेजों में ग्रेजुएशन स्तर पर भी सेमेस्टर प्रणाली को लागू कर दिया गया है। पोस्ट-ग्रेजुएशन स्तर पर और इंजीनियरिंग कॉलेजों में सेमेस्टर प्रणाली पहले ही लागू है। सेमेस्टर प्रणाली को लागू करने के पीछे शिक्षण के “विशेषज्ञ” उन्हीं पुराने घिसे-पिटे तर्कों की जुगाली कर रहे हैं, जैसेकि इसके साथ विद्यार्थियों का पढ़ाई की तरफ़ ध्यान और ज़्यादा अच्छी तरह से “फ़ोकस” होगा, उन पर पढ़ाई का बोझ घटेगा, पढ़ाई का नियोजन ज़्यादा अच्छी तरह होगा आदि। ये तर्क उनसे बड़े “विशेषज्ञों” ने ईजाद किये हैं जो सरकार द्वारा स्थापित “ज्ञान” कमीशनों की शोभा बढ़ाते हैं और सरकार की शिक्षा से सम्बन्धित नीतियों को बनाते हैं। इन तर्कों के पीछे वह सेमेस्टर प्रणाली के असली “फ़ायदों” को छुपा लेते हैं और घोर छात्र-विरोधी सेमेस्टर प्रणाली को नौजवानों पर लादने में कामयाब हो जाते हैं। कुछ और “विशेषज्ञ” भी हैं जिनके लिए हर वह बात “ठीक” होती है जो अमेरिका में होती हो; सेमेस्टर प्रणाली के बारे में भी उनकी यही दलील है कि “अमेरिका में भी सेमेस्टर प्रणाली है।” आखि़र सेमेस्टर प्रणाली क्यों शिक्षा के हर स्तर पर लागू की जा रही है? इसके कुछ ठोस कारण हैं जो हमारे देश के मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के साथ जुड़े हुए हैं।
spend-less-textbooksशिक्षण ढाँचे का सारतत्व और रूप, इसका पाठ्यक्रम और इसके तौर-तरीक़े पूरी तरह से राजनीतिक-आर्थिक ढाँचे के साथ जुड़ा मामला है, क्योंकि किसी ख़ास सामाजिक-आर्थिक ढाँचे का शैक्षणिक ढाँचा उस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की सेवा के लिए अर्थात उस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होता है। हमारा मौजूदा शैक्षणिक ढाँचा भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे देश में आज पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक ढाँचा है जिसके हित हमारे आज के शिक्षा ढाँचे के साथ अटूट रूप से जुड़े हुए हैं। पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे को बड़ी संख्या में अक्षर-ज्ञान प्राप्त, हिसाब-किताब करने योग्य मज़दूरों (क्लर्कों) की, तकनीकी और अधीक्षक (इंजीनियर, डिप्लोमाधारक, सुपरवाइज़र आदि) कर्मचारियों की ज़रूरत होती है। इसके साथ ही उच्च-तकनीकी ज्ञान (सिर्फ़ तकनीकी ज्ञान, विज्ञान का ज्ञान नहीं) प्राप्त कर्मचारियों की भी ज़रूरत होती है, जो पूँजीपतियों के लिए तकनीक विकसित करने के लिए भाड़े के टट्टू की तरह काम करते हैं, यह अलग बात है कि पूँजीपति वर्ग इनकी आँखों में मोटे वेतन पैकेजों की उँगली मार देता है जिसके कारण इन्हें पूँजीवादी ढाँचे के भीतर अपनी असली हैसियत (और अपने चारों तरफ़ मौजूद पूरी दुनिया ही) दिखायी देना बन्द हो जाती है। इसके अलावा, पूँजीवादी ढाँचे को प्रशासन का काम सँभालने के लिए नौकरशाही, दफ्तरी बाबुओं के लाम-लश्कर, इसकी विचारधारा को आम लोगों में प्रदर्शित और स्थापित करने के लिए एक बुद्धिजीवी वर्ग और इसके शैक्षणिक ढाँचे में काम करने वाले अध्यापक-प्रोफ़ेसरों के तबके की, जिसे फिर से उपरोक्त सभी ज़रूरतों के लिए “पढ़े-लिखों” की नयी कतारें तैयार करनी होती हैं, लगातार भरपाई करने के लिए काफ़ी संख्या में “शिक्षित” लोगों की ज़रूरत होती है। इन “शिक्षित” लोगों का इस तरह शिक्षित होना लाज़िमी है कि यह मौजूदा लुटेरे ढाँचे के हितों और सीमाओं से पार देखने की सामर्थ्य बिल्कुल खो चुके हों और तनख़्वाह के बदले ख़ुद को बेचना ही कर्तव्य-पूर्ति समझते हृों। विज्ञान पढ़ने वाले के पास वैज्ञानिक और तर्कशील विश्व-दृष्टिकोण न हो, साहित्य पढ़ने वाले के पास आम जनता का दुख-दर्द और उसके प्रति लगाव महसूस करने की चेतना न हो, इतिहास पढ़ने वाले को इतिहास का कोई बोध न हो; ऐसे पढ़े-लिखे लोग तैयार करना ही हमारे मौजूदा शैक्षणिक ढाँचे का असली उद्देश्य है। इस दौरान अगर कोई व्यक्ति पढ़ते-पढ़ते इस शैक्षणिक ढाँचे के उद्देश्य के विपरीत चला जाता है तो यह इस ढाँचे का “एबरेशन” (विचलन) है, कमजोरी है जिसको रोकने या न्यूनतम बनाने के लिए पूँजीपतियों की प्रबन्धन समिति अर्थात सरकार और उसके बौद्धिक टुकड़खोर लगातार माथापच्ची करते रहते हैं। इसी माथापच्ची में से ही सेमेस्टर प्रणाली की खोज हुई है जिसका उद्देश्य मौजूदा शैक्षणिक ढाँचे को पूँजीपति वर्ग के हितों के पहले से भी ज़्यादा अनुकूल बनाना है।
हमारे मौजूदा शिक्षण ढाँचे का पूरा पैटर्न (पाठ्यक्रम, परीक्षाओं की व्यवस्था, अध्यापन के तौर-तरीक़े और अध्यापक) ऐसा है जो स्वतन्त्र चिन्तन और सवाल पैदा होने की ज़मीन और सवाल करने की हिम्मत को बुरी तरह से कुचल डालता है। वार्षिक प्रणाली भी इस मामले में कोई कम नहीं थी, परन्तु सेमेस्टर प्रणाली तो इससे भी कई क़दम आगे है। एक तयशुदा नोटिस-किस्म का सिलेबस और लगातार होती रहने वाली परीक्षाओं का विवरण समेस्टर प्रणाली के अधीन इतना भयंकर है कि विद्यार्थियों को अपने विषयों से हटकर विज्ञान की दूसरी शाखाओं और साहित्य, कला आदि का कोई अध्ययन करने का मौक़ा मिलना तो दूर, उनके पास अपने विषयों का भी गम्भीरतापूर्वक और गहराई के साथ अध्ययन करने का समय नहीं मिलता। दूसरा, परीक्षाओं में से अधिक से अधिक नम्बर हासिल करना ही पढ़ाई का मुख्य मकसद तो पहले ही बना दिया गया था, सेमेस्टर प्रणाली ने इस मानसिकता को और खाद-पानी दिया है। जब कुछ नोट्स पढ़कर नम्बर हासिल किये जा सकते हैं तो और ज़्यादा विस्तारित किताबें या शोध-पत्र पढ़ने की ज़रूरत किसी को महसूस ही नहीं होती। पढ़ने का मतलब कुछ नोट्स को अच्छी तरह रट लेना बन गया है जिससे परीक्षा में कम से कम ग़लती हो, और अधिक से अधिक नम्बर आयें। इसके पीछे विद्यार्थियों का कोई कसूर भी नहीं है, उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखि़ले और नौकरी हासिल करने के लिए बनती मेरिट सूचियों को देखकर कोई भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि विद्यार्थियों के लिए ऐसा करना कितना ज़रूरी हो चुका है। हमारे देश में नौजवानों के लिए अपनी पढ़ाई के विषय ख़ुद चुनने की आज़ादी (जो अपनी ज़िन्दगी के फ़ैसले ख़ुद लेने की आज़ादी के साथ ही जुड़ा हुआ है) तो पहले ही नहीं थी, क्योंकि यह काम उसके लिए माता-पिता, “पढ़े-लिखे” रिश्तेदार और अध्यापक करते हैं (जिनकी गिनती-मिनती में इससे ज़्यादा कुछ नहीं होता कि बाज़ार के भीतर कौन सा माल अधिक बिकता है), सेमेस्टर प्रणाली के आने से विद्यार्थी के आगे अपने पर थोपे गये विषयों में से भी अपनी प्राथमिकता के अनुसार पढ़ाई करने का रहा-सहा हक़ भी ख़त्म है। नतीजा यह कि बहुसंख्यक विद्यार्थी काठ के उल्लू बनते जा रहे हैं जिनको अपने चारों तरफ़ घूमते टेस्ट-पेपरों और उसके बाद नौकरी की खोज के सिवा और कुछ नहीं सूझता। यहाँ तक कि वे अपनी समस्याएँ जैसे बेरोज़गारी, बढ़ती फ़ीसें, शिक्षा का बाज़ारीकरण आदि के बारे में भी किसी समझ से बिल्कुल ही कोरे होते जा रहे हैं, और बिल्कुल यही उद्देश्य है पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा बनाये गये ज्ञान आयोगों का।
वार्षिक प्रणाली के अधीन विद्यार्थियों के पास आपसी बहस, विचार-चर्चाएँ, सेमीनारों और सांस्कृतिक सरगर्मियों के लिए कुछ-कुछ वक़्त होता था, परन्तु सेमेस्टर प्रणाली ने विद्यार्थियों को अपने ख़ुद के लिए समय से पूरी तरह वंचित कर दिया है। सांस्कृतिक सरगर्मियाँ और सेमीनारों के नाम पर प्रशाशन से “मंजूरशुदा” कुछ दिखावे होते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। विद्यार्थियों की तरफ़ से ख़ुद पहलक़दमी करके बहस, सेमीनार आदि करवाने को शिक्षण संस्थानों का प्रशासन सख़्ती के साथ रोकता है, जिसके लिए विद्यार्थियों को डराने-धमकाने तक के हथकण्डे इस्तेमाल किये जाते हैं। कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों के कैम्पसों को समाज से अलग-थलग करने में भी सेमेस्टर प्रणाली काफ़ी प्रभावी है। विद्यार्थी ग्रेड-नम्बरों के चक्कर में उलझ कर सामाजिक घटनाओं और समस्त मानवता से टूटकर रह जाते हैं और भयंकर हद तक व्यक्तिवादी चेतना का शिकार हो रहे हैं। सिर्फ़ पाठ्यक्रमों का रट्टा लगवाने तक सीमित शिक्षण पैटर्न न सिर्फ़ साहित्य-कलाओं आदि के क्षेत्र में नौजवानों की सर्जनात्मकता को ख़त्म करता है, बल्कि यह सम्बन्धित विषय में भी कोई रुचि और कल्पनाशील सर्जनात्मकता विकसित नहीं होने देता। कल्पनाशीलता, सर्जनात्मकता की अनुपस्थिति और भयंकर हद तक व्यक्तिवाद और अलगाव के शिकार नौजवान मानवीय संवेदनाओं के बिना, एक सतही और खोखली किस्म की शख्‍सि‍यत का मालिक ही हो सकता है। इस सब कुछ का समूचा नतीजा यह है कि विद्यार्थियों का एक वर्ग नशे, ब्ल्यू फ़िल्में, तुच्छ किस्म के झगड़ों और अन्य अमानवीय कामों के रसातल में जा गिरता है, एक वर्ग घृणास्पद हद तक कैरियरवादी हो निपटता है और कुछ हिस्सा निराशा के मकड़जाल का शिकार हो जाता है।
सेमेस्टर प्रणाली के पीछे सबसे बड़ा कारण शिक्षण संस्थानों का विराजनीतिकरण करने का एजेण्डा है। वास्तव में पूँजीपति वर्ग के नौकर शिक्षण-विशेषज्ञ जब यह कह रहे होते हैं कि सेमेस्टर प्रणाली के आने के साथ विद्यार्थी पढ़ाई पर और ज़्यादा अच्छी तरह “फ़ोकस” कर सकेंगे, तो उनका असली अर्थ यह होता है कि इसके साथ विद्यार्थी राजनीतिक सरगर्मियों से अपना “फ़ोकस” हटाने के लिए मजबूर हो जायेंगे। जब वह यह कहते हैं कि पढ़ाई का बोझ कम होगा तो उनका असली अर्थ यह होता है कि संस्थानों में विद्यार्थियों के ज़्यादा समय रुकने के कारण उनके अपने दिमाग़ों पर बनने वाला बोझ कम होगा। जब वह कहते हैं कि इसके साथ पढ़ाई का नियोजन अच्छी तरह होगा तो उनका असली अर्थ यह होता है कि इसके साथ विद्यार्थियों को खोखला व्यक्ति बनाने का नियोजन और ज़्यादा अच्छी तरह से हो सकेगा। दुनिया-भर के पूँजीपति वर्ग ने बीती एक सदी के छात्र आन्दोलनों और इन आन्दोलनों की तरफ़ से सामाजिक आन्दोलनों समेत मज़दूर आन्दोलन और राष्ट्रीय-मुक्ति आन्दोलनों में निभायी गयी भूमिका से अपने सबक अच्छी तरह निकाले हैं। शिक्षण संस्थानों, ख़ासकर यूनीवर्सिटियों और उच्च-शिक्षा संस्थानों जैसे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों ने हमेशा ही समाज में चलने वाले ‘रैडिकल’ आन्दोलनों के लिए नये रंगरूट देने और इन आन्दोलनों में केन्द्रीय भूमिका निभाने का काम किया है। भारत का पूँजीपति वर्ग यह सबक निकालने में किसी भी विकसित देश के पूँजीपति वर्ग से उन्नीस साबित नहीं हुआ है। भारत में राष्ट्रीय-मुक्ति आन्दोलन के दौरान भी विद्यार्थियों की भूमिका को कम करके नहीं देखा जा सकता। शहीद भगतसिंह और उनके बहुत से साथी भी कॉलेजों में पढ़ते हुए ही आज़ादी के आन्दोलन में कूदे थे। “आज़ादी” के बाद भी भारत की आम जनता की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, बल्कि ग़रीबी, बदहाली, बेरोज़गारी आदि पहले से भी बढ़े हैं। नतीजे के तौर पर, समाज में देशी पूँजीवादी सत्ता के खि़लाफ़ लगातार गुस्से और बेचैनी की हालत बनी रही है जो बीच-बीच में कभी सीमित विद्रोहों और तो कभी कुछ ज़्यादा व्यापक विद्रोहों के रूप में फूटती रही है। ऐसे हर एक आन्दोलन के बहुत से नेता और शक्ति शिक्षण संस्थानों में से आती रही है। इसलिए शिक्षण संस्थानों को नियन्त्रित और “अनुशासित” करना और इनका हरसम्भव हद तक विराजनीतिकरण करना भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए मुख्य चिन्ता का विषय रहा है। पूँजीपति वर्ग के आगे एक रास्ता तो यह था कि वह अपनी राजनीतिक पार्टियों का विद्यार्थियों में असर-रसूख पैदा करके विद्यार्थियों को किसी जनपक्षधर राजनीति से दूर ले जाता और उनकी राजनीतिक चेतना को कम करता। इसके अन्तर्गत वोट-बटोरने वाली पार्टियाँ जैसे कांग्रेस, भाजपा आदि के विद्यार्थी संगठनों ने अच्छे-ख़ासे विद्यार्थी वर्ग को प्रभावित किया है। यूनीवर्सिटियों और उच्च-शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थियों की बदली हुई वर्गीय पृष्ठभूमि ने भी इस तरह के विद्यार्थी संगठनों के प्रभाव के फैलने में एक अहम भूमिका निभायी है। पूँजीपतियों की पार्टियों के अच्छे “कामरेडों” की भूमिका निभाते हुए माकपा, भाकपा के विद्यार्थी संगठनों ने भी भारतीय पूँजीपति वर्ग की इस क्षेत्र में ख़ूब सेवा की है। परन्तु इसकी अपनी सीमाएँ हैं। ख़ासकर 1991 के बाद शुरू हुई निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ के बाद इस किस्म की विद्यार्थी राजनीति का स्कोप घटता जा रहा है। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के हिस्से और प्रभाव के तौर पर, तेज़ी के साथ शिक्षा का बाज़ारीकरण हुआ है, फ़ीसें (ख़ासकर उच्च-शिक्षा के लिए) तेज़ी के साथ बढ़ी हैं और रोज़गार के मौक़े सीमित होते जा रहे हैं और जो मौक़े हैं भी, वहाँ भी गुलामों जैसी हालत में काम करने के लिए नौजवान मजबूर हैं। सत्ता के बढ़ रहे फासीवादी चरित्र और समाज में सीमित होते जा रहे जनवादी स्पेस की प्रकिया के हिस्से के रूप में शिक्षण संस्थानों के भीतर भी जनवादी स्पेस लगातार सिकुड़ रहा है, प्रबन्धन के नाम पर विद्यार्थियों की आवाज़ को दबाया जा रहा है और कॉलेजों-यूनीवर्सिटियों के प्रशासनिक अधिकारी और अध्यापक फ़ैक्टरियों के फ़ोरमैन बन गये हैं जो सत्ता से हासिल होती मोटी तनख़्वाह के टुकड़ों के बदले में विद्यार्थियों का गला घोटने के लिए पूरा ज़ोर लगा देते हैं। बहुत से राज्यों में छात्रसंघ चुनावों पर पहले ही पाबन्दी लगायी जा चुकी है, और जहाँ चुनाव होते भी हैं, वहाँ भी धन-बल के द्वारा चुनाव जीते जाते हैं और यह चुनाव संसदीय राजनीति की नर्सरी से अधिक कुछ नहीं रहे हैं। पूँजीपति वर्ग के “थिंक टैंकों” को अच्छी तरह मालूम है कि सिर्फ़ इन तौर-तरीक़ों के साथ ही विद्यार्थियों की चेतना के राजनीतिकरण को नहीं रोका जा सकता। इसलिए और ज़्यादा बारीकी से मार करने वाले हथियारों की ज़रूरत है। इन हथियारों में से ही एक सेमेस्टर प्रणाली है। बेशक सेमेस्टर प्रणाली का प्रभाव भी अन्त में विद्यार्थियों-नौजवानों की राजनीतिक चेतना कम करने में ही निकलता है, परन्तु सेमेस्टर प्रणाली शिक्षण संस्थानों के विराजनीतिकरण के लिए माहौल को और भी ज़्यादा मज़बूत करती है।
सरकार को विद्यार्थियों का शिक्षण संस्थानों में मौजूद रहना ही गँवारा नहीं रहा। इसलिए शिक्षण संस्थानों के प्रशासन की यह हरसम्भव कोशिश है कि विद्यार्थी पहले तो शिक्षण संस्थानों में समय ही कम से कम बितायें और जितना समय वे संस्थान में रहें उस समय भी वे सिलेबस, लेक्चर और परीक्षाओं के शोरगुल में इतना उलझे रहें कि उनके पास किसी भी और सरगर्मी के लिए समय ही न हो। हर एक सेमेस्टर में 90 दिन की पढ़ाई, हफ्ते में दो दिनों की छुट्टी, तीन महीनों में कई दफा परीक्षाएँ आदि इसीलिए हैं। हरेक सेमेस्टर में विद्यार्थी मुश्किल से तीन महीने संस्थान में गुज़ारते हैं, बाक़ी समय उनका छुट्टियों में निकलता है जिस दौरान विद्यार्थी अपने-अपने घरों को चले जाते हैं और संस्था के भीतर होने वाली हर सरगर्मी से और उनका एक-दूसरे से आपसी सम्पर्क टूटा रहता है। सिलेबस, लेक्चर और परीक्षा का डरावना चक्कर इतना “असरदार” है कि इस दौरान अगर एक आम विद्यार्थी को कुछ समय की फ़ुर्सत मिलती भी है तो वह हर तरह की सरगर्मी से दूर भागकर कुछ समय फ्सुकून” के साथ रहना चाहता है जो वास्तव में उसको कहीं नहीं मिलता। बहुत ही ज़्यादा कसी हुई शिक्षण समय-सारणी से तंग आये हुए विद्यार्थियों को अपने हक़ों के लिए और अपने खि़लाफ़ होती धक्काशाही, अन्याय के विरुद्ध लड़ना और यहाँ तक कि इस विषय पर बात करना भी फ़ालतू का बोझ लगने लगता है। एक तरह के पराजय-बोध और उदासीनता ने समूचे विद्यार्थियों को घेर रखा है जिसमें से निकलना ही विद्यार्थी आन्दोलन के लिए आज एक चुनौती बन चुका है।
परन्तु सरकारें चाहे जितने निकृष्टम हथकण्डे अपना लें, वे छात्र आन्दोलन के उभार को पीछे तो धकेल सकती हैं, परन्तु वे इसे रोक नहीं सकतीं। शिक्षण संस्थानों में बने दमघोंटू माहौल, हिटलरतन्त्र बन चुके कॉलेज-यूनीवर्सिटी के प्रशासनिक तथा अध्यापन ढाँचे और ऊपर से पुलिस और गुण्डों की तरफ़ से विद्यार्थियों पर लगातार हो रहे हमलों के खि़लाफ़ विद्यार्थियों में आक्रोश और बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही है। शिक्षा का लगातार महँगा होते जाना और असुरक्षित भविष्य विद्यार्थियों को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। ऐसे में विद्यार्थियों के गुस्से का फूट पड़ना लाजमी है। कुछ ताज़ा घटनाएँ इस ओर पहले ही संकेत कर रही हैं। परन्तु आने वाले विद्यार्थी संघर्षों की निरन्तरता बनाये रखने के लिए इसको समूचे समाज में बदलाव और पुनर्निर्माण के क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ जोड़ना और इसे संसदीय राजनीति की पूँछ बनने से बचाना बेहद ज़रूरी होगा। विद्यार्थी आन्दोलनों की नेतृत्वकारी ताक़तों के लिए यह एक अहम ज़िम्मेदारी होगी। इसके साथ ही विद्यार्थियों के भीतर गहराई से बिठा दी गयी संकुचित निजी हितों तक सीमित रहने की व्यक्तिवादी मानसिकता और बेगानापन, राजनीतिक समझदारी और मानवीय संवेदनाओं की बहुत हद तक अनुपस्थिति, ग़ैर-जनवादी और सामन्ती जीवन-शैली, सांस्कृतिक घटाटोप के खि़लाफ़ लड़ने के लिए नये-नये तौर-तरीक़े ईजाद करने और सांस्कृतिक सरगर्मियों की निरन्तरता बनाना भी विद्यार्थी आन्दोलनों की नेतृत्वकारी ताक़त के लिए एक प्रमुख कार्यभार होगा। यही विद्यार्थी आन्दोलन के अब तक के इतिहास का सबक है, क्योंकि इन कार्यों की अनदेखी ने विद्यार्थी आन्दोलन को बहुत नुक़सान पहुँचाया है। भविष्य में भी इनमें से किसी भी मोर्चे पर ग़लती या नासमझी छात्र आन्दोलन को बहुत नुक़सान पहुँचायेगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2014

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