Wednesday, 8 February 2023

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और हरियाणा में उच्च शिक्षा की वित्त व्यवस्था 

 15.05.2022

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और हरियाणा में उच्च शिक्षा की वित्त व्यवस्था 

                  सुरेंद्र कुमार,

पूर्व प्रोफेसर अर्थशास्त्र और डीन अकादमिक मामले

महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक

ई-मेल आईडी: ksurin@rediffmail.com


आजकल केंद्र और राज्य सरकारों ने नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की प्रक्रिया शुरू की है। इस व्यवस्था क़्रम में कई अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं जिन्होंने समाज के कई समुदायों को आंदोलित कर दिया है।  इस लेख में, हम विशेष रूप से नयी शिक्षा नीति के परिपेक्ष में हरियाणा में सार्वजनिक विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में उच्च शिक्षा के वित्तपोषण से संबंधित मुद्दों की जांच करें गे। 


कस्तूरीरंगन समिति ने अपने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 के मसौदे में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि शिक्षा के लिए विभिन्न सरकारों के वित्तीय प्रावधान को सार्वजनिक व्यय कहना ग़लत है, क्योंकि यह वास्तव में एक दूरगामी निवेश है। इसलिए शिक्षा के लिए बजटीय प्रावधान करते समय राजनीतिक नेतृत्व के साथ-साथ नौकरशाही को भी अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए और शिक्षा पर होने वाले खर्च को सार्वजनिक व्यय न मान कर इसे निवेश मानना चाहिए। शिक्षा पर निवेश शायद एक राष्ट्र के लिए सबसे अच्छा निवेश होता है। शिक्षा से सामाजिक लाभ निजी रिटर्न/लाभ की तुलना में तीन से चार गुना अधिक होता है।


 एनईपी-2020 ने रेखांकित किया है कि उच्च शिक्षा संस्थानों को अपर्याप्त वित्तीय सहायता सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने में सब से प्रमुख रोड़ा है। केंद्र और राज्य सरकारों की शिक्षा पर संयुक्त व्यय भारत में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4.43% है। यह अफ़सोस का विषय है कि भारत में शिक्षा के लिए बजटीय सहायता दुनिया के विकसित और विकासशील देशों की तुलना में अब तक सबसे कम रही है  शिक्षा नीति यह सिफारिश करती है कि  शिक्षा पर निवेश (व्यय) को सकल घरेलू उत्पाद के 6% तक तुरंत बढ़ाया जाना चाहिए। भारत सरकार ने पहली शिक्षा नीति,1968 में सकल घरेलू उत्पाद के 6% शिक्षा पर खर्च करने की प्रतिबद्धता प्रकट की थी लेकिन आज तक इस लक्ष्य को पूरा नहीं किया गया। सरकार की प्रतिबद्धता केवल काग़ज़ों में है। भारत में शिक्षा की उपेक्षा का इस से बड़ा यह बहुत बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है?  

दूसरा, भारत में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें अपने वार्षिक बजट का केवल 10% हिस्सा शिक्षा पर खर्च करती हैं। कस्तूरीरंगन समिति ने सिफारिश की थी कि इन बजटीय प्रावधानों को अगले दस वर्षों में हर साल एक प्रतिशत की वृद्धि के साथ बढ़ाकर 20% तक बढ़ाना चाहिए। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नयी शिक्षा नीति को स्वीकार करते हुए इस सिफ़ारिश का संज्ञान ही नहीं लिया। शायद शिक्षा नीति में सरकार वित्तीय प्रबंध का कोई पक्का वायदा नहीं करना चाहती थी। यह सरकार की शिक्षा के वित्तीय प्रबंधन के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रश्न चिन्ह लगती है?  दूसरी और नीति दस्तावेज इस बात पर जोर देता है कि यह महत्वपूर्ण है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सभी फंड समय पर निर्बाध रूप से जारी किए जाएं। एक बार जब सरकार द्वारा बजट को मंजूरी दे दी जाती है, तो आवंटित धन के किसी भी हिस्से को रोकने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। निधि वितरण की प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। निगरानी और जवाबदेही सभी स्तरों पर तय की जानी चाहिए। इसके अलावा, नीति अनुशंसा करती है कि सरकार को पर्याप्त संख्या में शिक्षकों और कर्मचारियों की नियुक्ति के साथ-साथ शिक्षकों के विकास के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता और धन प्रदान करना चाहिए। नीति इस बात को रेखांकित करती है कि वित्तीय प्रशासन और प्रबंधन, को उपयुक्त रूप से संशोधित और सुव्यवस्थित किया जाना चाहिए  ताकि उच्च शिक्षण संस्थान किसी प्रकार की अनिश्च्यता की स्थित में न रहें। 


हरियाणा सरकार ने सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को दीर्घकालीन अनुदान के स्थान पर ऋण देने की योजना के तहत 147.75 करोड़ रुपये की पहली किश्त जारी करने की अधिसूचित 12.05.2022 को जारी की। राज्य सरकार ने राज्य के विश्वविद्यालयों को सूचित किया है कि इस वर्ष से वार्षिक अनुदान को राज्य सरकार से विश्वविद्यालयों को ऋण के रूप में माना जाएगा। यह भी बताया गया है कि राज्य सरकार सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए कदम उड़ाये क्योंकि यह एक विश्वविद्यालय की वास्तविक स्वायत्तता की नींव है! जब हरियाणा समाज के विभिन्न वर्गों ने विरोध किया तो सरकार द्वारा स्पष्टीकरण दिया गया की विश्वविद्यालयों को जारी की गयी राशि ऋण नहीं अनुदान है ! 

सरकार द्वारा विश्वविद्यालयों को छात्रों और जनता के लिए विभिन्न सेवाओं के लिए उपयोगकर्ता शुल्क बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। कुछ विश्वविद्यालयों ने अपनी फीस असामान्य रूप से कई गुना बढ़ा दी है, बिना किसी पारदर्शी तरीके से सेवा की लागत की गणना करने के और केवल मात्र अतिरिक्त वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए, जो अर्थशास्त्र में एकाधिकार किराए के बराबर है। यह सार्वजनिक संस्थान के एकाधिकार का दुरुपयोग है, जिस का शिक्षा के क्षेत्र में कोई औचित्य नहीं है I  छात्रों के साथ-साथ शिक्षक संघों ने सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन के इस तरह के कदमों के खिलाफ विरोध शुरू किया तो  इन प्रवधानो को वापिस ले लिया गया या कम कर दिया गया। इस तरह के कदम विश्व विद्यालयों के शैक्षणिक वातावरण को दूषित करते हैं। 


हरियाणा सरकार के इन नीतिगत निर्णयों में से कोई भी भारत सरकार द्वारा अनुमोदित शिक्षा नीति के अनुरूप नहीं है। शिक्षा नीति में यह कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को आर्थिक रूप से स्वायत्त होना चाहिए। स्वायत्ता केवल पठन-पाठन और प्रशासन की है। इसलिए विश्व विद्यालयों की स्वयता के नाम पर आर्थिक स्वयता पर ज़ोर देना सरकार का अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ना है। हरियाणा सरकार नई शिक्षा नीति को अक्षरश: लागू करने का दावा करती है, लेकिन उसके इस तरह के कदम हमारे सार्वजनिक शिक्षा संस्थान में जनता के विश्वास को बहाल नहीं रखते। इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि हरियाणा सरकार को अपने तदर्थ कदमों पर पुनर्विचार करना चाहिए और उच्च शिक्षा प्रणाली की अखंडता को बहाल करना चाहिए जैसी की एनईपी-2020 में परिकल्पना की गई है ताकि यह ऐसे शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण कर सके जो 21वीं सदी के समाज और अर्थव्यवस्था के सामने उभरती चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हों।