Monday, 4 August 2025

संघ का शिक्षा एजेंडा

संघ का शिक्षा एजेंडा : 
न पढेंगे पढ़ने देंगे 

० राजेंद्र शर्मा

यह संयोग हर्गिज नहीं है कि राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ या आरएसएस की स्थापना की शताब्दी के इस वर्ष में शिक्षा का क्षेत्र और उसमें भी खासतौर पर आरंभिक शिक्षा का क्षेत्र, लगातार खबरों में है। जाहिर है कि शिक्षा का यह क्षेत्र किन्हीं अच्छे कारणों से खबरों में नहीं है। यह नकारात्मक विवादों के लिए खबरों में है। इस क्रम में ताजातरीन विवाद, देश भर में स्कूली पाठ्यक्रमों के लिए मानक पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकें तैयार करने वाली केंद्रीय संस्था, राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद या एनसीईआरटी द्वारा आठवीं तक की कक्षाओं के लिए जारी की गई सामाजिक विज्ञान की और उसमें भी विशेष रूप से इतिहास की पाठ्य पुस्तकों को लेकर उठा है।

       विवादित पाठ्य पुस्तकों में, इन्हीं विषयों की पिछली पाठ्य पुस्तकों से जो भारी बदलाव किए गए हैं, उनका मुख्य मकसद भारतीय इतिहास की और विशेष रूप से मध्यकालीन इतिहास को आरएसएस की सांप्रदायिक धारणाओं तथा आग्रहों को, लड़कपन की उम्र से ही बच्चों के मन में, इतिहास के रूप में बैठाना है। सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए की गई कतरब्योंत में मुस्लिम शासकों के दौर पर खासतौर पर कैंची चलाई गई होगी। यहां तक कि टीपू सुल्तान और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उसकी लड़ाइयों का जिक्र तक, सिरे से गायब कर दिया गया है। सभी जानते हैं कि अपने राजनीतिक बाजुओं के जरिए, आरएसएस को जब भी देश की सत्ता तक किसी भी तरह से पहुंच हासिल हुई है. उसने बच्चों की पाठ्य पुस्तकों के सांप्रदायिक पुनर्लेखन पर खास ध्यान दिया है।

इस सिलसिले की औपचारिक शुरूआत तो 1978 में ही हो गई थी, जब इमर्जेंसी राज की हार के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार के माध्यम से, पहली बार आरएसएस के राजनीतिक बाजू, जनसंघ को केंद्र में सरकार तक पहुंच हासिल हुई थी। यह दूसरी बात है कि आरएसएस से संबंध के रूप में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर, इमर्जेंसी के विरोध के आधार पर बनी जनता पार्टी में विभाजन हो गया, जिसका जनसंघ घातक नई राजनैतिक पार्टी का हिस्सा रहते हुए भी, आरएसएस के प्रति  वफादारी में बनाए रखने की छूट चाहता था। इस विभाजन के चलते जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई और चौतरफा विरोध के चलते जिसमें खुद जनता पार्टी के दूसरे घटकों में से विरोध भी शामिल था , स्कूली पाठ्य पुस्तकों का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने की ये  शुरुआती कोशिशें भी ज्यादा असर नहीं दिखा पाई।
         
          इन कोशिशों को बड़ा बढ़ावा मिला 1998 में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद। वाजपेयी सरकार में शिक्षा मंत्रालय, मुरली मनोहर जोशी ने संभाला, जो एक ओर अगर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे थे, तो दूसरी ओर आरएसएस के बहुत पुराने स्वयंसेवक थे। 2004 तक चले इस दौर में बाकायदा इतिहास के पुनर्लेखन की घोषणाएं की गयीं और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में काट-छांट से लेकर, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र जैसे पोंगापंथी विषयों को विधिवत पाठ्यक्रम में स्थान दिलाए जाने की शुरूआत की गयी। फिर भी, अब जो हो रहा है उसे देखते हुए, यह कहना ही पड़ेगा कि इतिहास का सांप्रदायिक पुनर्लेखन करने में मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में शिक्षा मंत्रालय को तब, कोई बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल पायी थी। बेशक, इसका संबंध इससे भी है कि इन कोशिशों का राजनीतिक ही नहीं अकादमिक हल्कों से भी जो तीखा विरोध हो रहा था, उसकी थोड़ी-बहुत प्रतिध्वनि तत्कालीन सरकार में भी सुनाई देती थी, जो गठबंधन की मजबूरियों से भी मुक्त नहीं थी। फिर भी शिक्षा की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक धारा को इस दौर में इतनी चोट तो पहुंचा ही दी गयी थी कि स्कूली शिक्षा को उसके धक्के से उबारते हुए, दोबारा पटरी में लाने के लिए, यूपीए के राज में काफी बड़ी कवायद करनी पड़ी थी।
          

           2014 से भाजपा के नेतृत्व में, गठबंधन की मजबूरियों से मुक्त और आरएसएस के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से युक्त सरकार आने के बाद से, 2004 में अधूरे छूट गए इतिहास के सांप्रदायिक पुनर्लेखन को आम तौर पर और स्कूली शिक्षा में खासतौर पर, ताबड़‌ तोड़ आगे बढ़ाया गया है। आठवीं कक्षा तक की पाठ्य पुस्तकों का लगभग पूर्ण सांप्रदायीकरण, जिस पर इस समय बहस सुनाई दे रही है, इसी लंबी प्रक्रिया का नतीजा है। ताजातरीन झटके में, एक ओर तो मुस्लिम शासनों की चर्चा को इतना सिकोड़ दिया गया है कि रजिया सुल्तान तथा नूरजहां जैसे ताकतवर शासकीय व्यक्तियों का जिक्र ही गायब कर दिया गया है, तो दूसरी ओर बाबर से लेकर औरंगजेब तक, सभी मुगल शासकों को आधुनिक अर्थ में क्रूर, दमनकारी तथा धार्मिक अत्याचार करने वाले शासकों के रूप में चित्रित किया गया है और अकबर तक को नहीं बख्शा गया है। उसी परियोजना के दूसरे पहलू के रूप में हिंदू राजाओं के ठीक इन्हीं "गुणों" का जिक्र ही न करते हुए, उनका ज्यादा से ज्यादा महिमा मंडन किया गया है।
 
         लेकिन, बात सिर्फ मुस्लिम शासकों को काले रंग से पोते जाने तक सीमित नहीं रहती है। इससे आगे, बाकायदा एक सामान्यीकरण तक भी जाती है, जिसमें खासतौर पर भारतीय इतिहास के मुस्लिम दौर को " अंधेरे दौर" या अंधकार युग 
के रूप में चिन्हित किया गया है। यह सांप्रदायीकरण के सिलसिले को, गुणात्मक रूप से एक नये स्तर पर पहुंचा देता है। दिलचस्प यह है कि आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन के इतिहास की जानकारी नहीं रखने वालों को ही "अंधेरे दौर" की इस खोज में, कुछ भी नया लग सकता है। वास्तव में यह भारतीय इतिहास लेखन के उस पश्चिमी औपनिवेशिक मॉडल की ही नई पैकेजिंग है, जिसमें ब्रिटिश-पूर्व भारतीय इतिहास को मोटे तौर पर मुस्लिम पूर्व प्राचीन काल और मुस्लिम मध्यकाल

में विभाजित किया जाता था। इसमें प्राचीन गौरवपूर्ण या स्वर्णयुग था और मध्यकाल, इस गौरव के हरण का काल यानी इस दृष्टि के हिसाब से हिंदुओं और मुसलमानों के अनवरत टकराव का काल या हिंदुओं के दमन का काल। लेकिन, इस नई पैकेजिंग में भी नया सिर्फ इतना है कि योरपीय इतिहास के काल विभाजन में मध्य युग के लिए "डार्क एज" की जिस संज्ञा का प्रयोग किया जाता है, उसी को उठाकर ज्यों का त्यों अनुवाद करके रख दिया गया है। गैर-प्राचीन भारतीय इतिहास की, योरपीय इतिहास से भिन्नता की कोई थोड़ी-बहुत गुंजाइश अब तक रहती भी थी तो उसे, इस "अंधकार युग" के आयात से पाट दिया गया है।

      स्कूली पाठ्य पुस्तकों के इस प्रसंग से ठीक पहले, स्कूली शिक्षा से ही संबंधित जो प्रसंग चर्चा में था, उसका संबंध हजारों की संख्या में सरकारी स्कूलों के बंद किए जाने से है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में यह मामला चर्चा में आया था, जहां इसी साल स्कूलों के मर्जर के नाम पर 5 हजार से ज्यादा स्कूलों के बंद किए जाने की खबर आई है। सत्ताधारी भाजपा के बहुत
ही सख्त मीडिया नियंत्रण के बावजूद, सोशल मीडिया में और थोड़ा-बहुत परंपरागत मीडिया में भी, अपने स्कूल बंद किए जाने के खिलाफ छोटे-छोटे स्कूली बच्चों के भावुक करने वाले प्रदर्शनों ने ध्यान खींचा है। ये बच्चे रो-रोकर सरकार से गुहार लगा रहे थे कि उनके स्कूल बंद नहीं किए जाएं। इसी क्रम में जगह-जगह पर लगाए गए एक बैनर ने भी ध्यान खींचा- मधुशाला नहीं, पाठशाला ! दरअसल, यह बैनर भी तब वाइरल हुआ जब योगी प्रशासन इस बैनर को हर जगह से हटवाने के लिए, सड़कों पर उतरा।

      कहने की जरूरत नहीं है कि मर्जर या तार्किकीकरण आदि, आदि नामों से, छात्रों की संख्या पचास से कम होने के आधार पर, सरकारी स्कूलों को ही बंद करने के इस खेल की, उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में, जहां पढ़ाई का स्तर आम तौर पर काफी दरिद्र है, गरीबों की शिक्षा पर बहुत भारी मार पड़ रही है। याद रहे कि स्कूलों का बंद  किया जाना, भाजपा सरकारों की नीति का ही हिस्सा है। तभी तो 2014 से अब तक, देश भर में पूरे 89,441 स्कूल इस तरह से बंद किए जा चुके हैं। और इनमें से 60 फीसद स्कूल भाजपा-शासित मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में ही बंद किए गए हैं। इस सब को देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि 2021 से 2024 के बीच तीन साल में देश भर में, पहली से आठवीं कक्षा तक के दो करोड़ छात्र पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए हैं। उत्तर प्रदेश में ही, जहां इस साल पांच हजार स्कूलों को बंद किया जा रहा है, 2022-23 और 2023-24 के बीच, 1,33,035 सरकारी प्राइमरी तथा मिडिल स्कूलों में, छात्रों के दाखिलों में पूरे 24 लाख की कमी हुई थी। इस तरह, नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के नाम पर, स्कूली शिक्षा के बुनियादी ढांचे को ही ढहाया जा रहा है। जाहिर है कि यह शिक्षा के निजीकरण जैसे राजनीतिक स्वार्थों के लिए झूठे बहाने तलाश करने का ऐसा खेल है, जिसमें छात्रों के वास्तविक हितों की आहुति दी जा रही  एनईपी की आड़ में और आरएसएस के एजेंडे के खातिर, स्कूली शिक्षा के ही ध्वस्त किए जाने का ऐसा ही एक और प्रसंग जो पिछले दिनों चर्चा में रहा है, स्कूली शिक्षा में हिंदी थोपे जाने की कोशिशों का है। वैसे यह कोशिश हिंदी थोपने पर ही रुकने वाली नहीं है। जम्मू-कश्मीर से आ रहीं, उप-राज्यपाल के नेतृत्व में राज्य में स्कूली बच्चों पर संस्कृत थोपे जाने की खबरें, इस मुहिम के अगले चरण की ओर इशारा कर देती हैं, जिसमें माध्यम के रूप में लादी जाने वाली एक परायी (मातृभाषा इतर) भाषा का बोझ, शिक्षा के प्रयास की कमर ही तोड़ने जा रहा है। बहरहाल, जैसा कि महाराष्ट्र का पहली कक्षा से हिंदी अनिवार्य करने की कोशिश के व्यापक प्रतिरोध का अनुभव दिखाता है, इस तरह की कोशिशें आसानी से लोगों को हजम होने वाली नहीं हैं। तमिलनाडु के बाद, महाराष्ट्र में भी मोदी सरकार को त्रिभाषा फार्मूला थोपने की अपनी कोशिशों को वापस लेना पड़ा है। लेकिन, जाहिर है कि उस टकराव के बाद, जिसमें आम तौर पर शिक्षा का और खासतौर पर हिंदी का भी नुकसान तो हो चुका था।

          लेकिन, सत्ताधारी संघ-भाजपा के लिए, उसकी हिंदी को आगे बढ़ाने की मुहिम भी तो, उसके विभाजनकारी प्रचार का ही हिस्सा, जहां हिंदी को "शासक की भाषा" के रूप में थोपने की कोशिश की जाती है। इससे हिंदी की कितनी प्रगति होती है या दुर्गति होती है, इसकी उन्हें परवाह नहीं है। इसीलिए, वे कभी इसकी चिंता करते नहीं मिलेंगे कि क्या हुआ कि मध्य प्रदेश में तीन साल पहले बड़े तामझाम के साथ, मैडीकल की पढ़ाई हिंदी में कराने के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने तथा धूम-धड़ाके से उनके जारी किए जाने के बाद, अब यह सच सामने आ रहा है कि राज्य के किसी भी मैडीकल कालेज में एक भी छात्र ने हिंदी में परीक्षा नहीं दी है।
लोक लहर 


Saturday, 19 July 2025

ज्ञान विज्ञान आंदोलन

 Draft for discussion

1980 के दशक में पार्टी में जनतांत्रिक-वामपंथी राजनीति के सामने हरियाणा के समाज में मौजूद चुनौतियों की पहचान करने के लिए बहस हुई। इस बहस में हरियाणा के बारे में जाति-पितृसत्ता की मज़बूत जकड़न को चिह्नित  किया गया और साथ ही यह अवलोकन स्पष्ट तौर पर किया गया कि हमारे समाज में कृषि में हरित क्रांति के साथ-साथ जो औद्योगिक प्रगति हुई है, उसका लाभ तो शिक्षित मध्य वर्ग को मिला है। इसके चलते हरियाणा की आबादी के एक बड़े हिस्से की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई है लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ापन बड़े पैमाने पर व्याप्त है। इस बहस में स्पष्ट हुआ कि हरियाणा में अर्ध-सामंती मूल्यों पर आधारित जातीय वर्चस्व, पितृसत्ता और पुरुष प्रधानता की मान्यता है; और सामाजिक सम्बन्धों का आधार यही मान्यता है। इसके चलते महिलाओं और दलित-पिछड़ी जातियों का उत्पीड़न आम घटनाक्रम है। इसी के साथ नवधनाढ्य वर्ग में सत्ता की भूख, जोड़-तोड़ के साथ निजी तरक्की का रुझान और आत्मकेंद्रित सोच हावी है। आज़ादी के आंदोलन में पैदा हुए आदर्शवाद की कमज़ोर उपस्थिति आदि के चलते अवसरवादी, भाई-भतीजावाद पर आधारित एवं भ्रष्टाचार से लिप्त राजनीति का बोलबाला है। ऐसे वातावरण में जनवादी राजनीति की ज़मीन तैयार करना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए जनतांत्रिक चेतना, जातिवाद से इतर सोच, महिला-समानता आदि मूल्यों की समझ पैदा करने का कार्य बेहद ज़रूरी है। इस कार्य की पहचान करने के पश्चात् इसे अमल में लाने के लिए सांगठनिक ढांचों  के निर्माण की प्रक्रिया को शुरू किया गया। हरियाणा के कई ज़िलों में जनवादी सांस्कृतिक मंच/सांस्कृतिक मंच/डैमोक्रेटिक फ़ोरम, विचार मंच आदि खड़े किए गए। इन मंचों ने कई वर्षों तक जनतांत्रिक संस्कृति के निर्माण का काम किया जिसके फलस्वरूप पार्टी को अनेक कार्यकर्ता भी मिले। इन मंचों की पहुंच शहरी शिक्षित मध्यवर्ग में थी और इस वर्ग के लोगों के दिलो-दिमाग में सुप्तावस्था में पड़े आदर्शवाद को जगाने का कार्य तो किया ही गया, साथ ही प्रांत में अर्ध सामंती जकड़न पर खरोंच डालने का कार्य भी किया गया। सांस्कृतिक मंचों के लक्ष्य-उद्देश्य प्रगतिशील समाज के निर्माण की दिशा बनाने वाले थे जो आज भी सार्थक हैं। उस समय तक गांवों की ओर जाना और समाज के निचले तबकों तक पहुंच बनाने का कार्य होना बाकी था। लेकिन मध्यवर्ग के कई लोगों को इन प्रक्रियाओं से एक विश्वदृष्टि ज़रूर मिली जिसके चलते  कुछ लोग पार्टी के कार्यों में आज भी सक्रिय हैं। इसी दौर में 'प्रयास' और फिर 'जतन' नाम से पत्रिका भी प्रकाशित होती रही। यह पत्रिका भी वैचारिक आधार तैयार करने का कार्य कर रही थी। इस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में हरियाणा की पार्टी ने गुणात्मक हस्तक्षेप करने की रणनीति तैयार कर ली थी और ठोस कार्य भी किए थे। हालांकि इस अनुभव का कोई प्रामाणिक विश्लेषण करता हुआ लिखित दस्तावेज़ तैयार नहीं हो सका, फिर भी यह सही है कि एक सकारात्मक पहल के रूप में इस अनुभव को पार्टी द्वारा दर्ज किया गया है। हरियाणा में यह कार्य चल ही रहा था कि 1987 में देश-भर में पार्टी द्वारा विज्ञान और तकनीक से जुड़े प्रश्नों को धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र और भाईचारे से जोड़ते हुए जनता के व्यापक हिस्सों के बीच जाने की समझ बनाई गई और 'भारत जन विज्ञान जत्था' देश के अलग-अलग हिस्सों में चलाया गया। इस जत्थे का मूल उद्देश्य जनता के साथ वैकल्पिक समाज की परिकल्पना को सांझा करना था और इस अभियान को जिन नारों से संचालित किया गया उनमें 'जनतंत्र के लिए  विज्ञान', 'धर्मनिरपेक्षता के लिए विज्ञान', 'राष्ट्रीय विकास और आत्मनिर्भरता के लिए विज्ञान' आदि थे। हरियाणा में भी  राष्ट्रीय जत्थे  का स्वागत हुआ और इसका प्रभाव भी सकारात्मक रहा। प्रांत में जो सांस्कृतिक/जनतांत्रिक मंच कार्यरत थे उनमें  भी विज्ञान के प्रश्नों पर विमर्श शामिल हुआ। अत: प्रांत में विज्ञान और जनता के बीच गहन सम्बन्ध बनाने का जो संदेश राष्ट्रीय जत्थे से मिल रहा था, उसी के मद्देनज़र  20 जून 1987 को 'हरियाणा विज्ञान मंच' की स्थापना हुई। शुरुआत से ही मंच के साथ विज्ञान के क्षेत्र के बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी और सामान्य जन जुड़ गए। जो कार्य आरम्भ हुए, कार्य पद्धति विकसित हुई, परिप्रेक्ष्य बना - वे सब पूर्व की प्रक्रियाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न थे। अब पूरा विमर्श विज्ञान और उसके विभिन्न पक्षों के इर्द-गिर्द बनने लगा। सांस्कृतिक मंचों के कार्यों से जो दृष्टि बनी थी, वह तो काम आई लेकिन उन कार्यों का संश्लेषण अथवा समेकन विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य और कामों में नहीं हो पाया। इसी लिए जतन पत्रिका जो एक समय पर विमर्श को दिशा देने का कार्य कर रही थी, बंद हो गई।

विज्ञान मंच के शुरूआती दिनों में राष्ट्रीय जत्थे से निकले बिंदु, जैसे - आत्मनिर्भरता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय और समतामूलक समाज के लिए विज्ञान आदि विज्ञान मंच के विमर्श के केन्द्र में रहे। साइंस बुलेटिन नामक पत्रिका भी शुरू की गई।  प्रारम्भिक वर्षों में विज्ञान मंच में वैचारिक विमर्श, मंच का प्रसार, पत्रिका प्रकाशन, ज़िलों पर इकाइयों का गठन आदि कार्य हुए लेकिन धीरे-धीरे मंच राष्ट्रीय सरकारी एजेसिंयों से प्रोजेक्ट आदि लेने की दिशा में बढ़ा। इनके संचालन तथा नियोजन के लिए न्यूनतम स्थापत्य, यानी दफ़्तर, मानदेय आधारित कार्यकर्ता, बैठकों आदि के लिए प्रायोजित खर्च, परियोजनाओं पर आधारित कार्यक्रमों का आयोजन, आने-जाने वालों को किराया-भाड़ा दे सकने के प्रावधान आदि  के चलते विज्ञान मंच की कार्य पद्धतियों में गुणात्मक परिवर्तन आ गए। धीरे-धीरे लोगों से सम्पर्क कम होते गए और दफ़्तरी प्रकियाएं (जिनमें न्यूनतम वित्त-उपलब्ध था) हावी होती गईं। यह एक चारित्रिक परिवर्तन था। अब शुरुआती विमर्श भी पीछे जाने लगा और परिप्रेक्ष्य की ओर भी ध्यान कम होता चला गया। परियोजनाओं के कार्यों, उनको जारी रखने की कोशिशों, वित्तीय प्रबंधन, प्रायोजित करने वाली  सरकारी एजेंसियों की बैठकों में समय लगने लगा। इसी दौरान हरियाणा विज्ञान मंच को राष्ट्रीय नेतृत्व के एक हिस्से की ओर से विकास केंद्र (डेवलपमेंट सेंटर) की परियोजना लेने का प्रस्ताव पेश किया गया। इस केंद्र के ज़रिये ग्रामीण कारीगरों के हुनर-विकास का कार्य प्रमुखता से होना था जिसके आधार पर ये कारीगर बाज़ार के लिए उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर सकें। यह केंद्र भी आय-वृद्धि के लिए प्रशिक्षण करने के साथ-साथ इन कारीगरों को संगठित करने और वैचारिक तौर पर विकसित करने का उद्देश्य लिये हुए था परंतु इसका अनुभव भी बुनियादी तौर पर विज्ञान मंच के अनुभव से अलग नहीं हो पाया। इस केंद्र में तो अंततः वित्तीय अभाव भी बन गया और इसे बंद ही करना पड़ा। विज्ञान मंच के अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी परियोजनाओं में साधन तो उपलब्ध हुए, जैसा कि चमारिया में ज़मीन ली गई या आज़ादगढ़ में प्लॉट ले लिया गया लेकिन वैचारिक कार्य, सांगठनिक पद्धति और लोगों से जुड़ाव में कमज़ोरी आई।

1990 तक आते-आते पूरे देश में 1987 के जन विज्ञान जत्थे के उपरांत जो विज्ञान का विमर्श लोगों तक पहुंचा था, उसमें विस्तार करने की समझ बनने लगी और केरल शास्त्र साहित्य परिषद् द्वारा अरणाकुलम् में साक्षरता अभियान का प्रयोग किया गया, जिसे पूरे देश में ले जाने की समझ बनी। इसी उद्देश्य के चलते भारत ज्ञान-विज्ञान जत्था निकाला गया। इस जत्थे से देश-भर में साक्षरता अभियानों के प्रति एक आकर्षण बना और हरियाणा में 1991 में 'पानीपत की चौथी लड़ाई' के नाम से साक्षरता अभियान चला। इस अभियान में हरियाणा के अलग-अलग ज़िलों से पार्टी के कार्यकर्ता पानीपत गए और लगभग डेढ़ वर्ष तक वहीं रहकर कार्य किया। साक्षरता अभियानों का अन्य ज़िलों में भी फैलाव हुआ। पानीपत की परियोजना को 'भारत ज्ञान-विज्ञान समिति, पानीपत' के नाम से बनी संस्था द्वारा चलाया गया। साक्षरता परियोजनाओं में कार्य करते हुए 'जन सांस्कृतिक मंच' और 'हरियाणा विज्ञान मंच' के तमाम विमर्शों और परिप्रेक्ष्य को समाहित करते हुए कार्य नहीं हो पाया। हां, यह ज़रूर हुआ कि राष्ट्रीय पार्टी द्वारा देश-भर के लिए भारत ज्ञान-विज्ञान समिति का गठन किया गया और इसके माध्यम से साक्षरता अभियान का जनपक्षीय परिप्रेक्ष्य विकसित हो गया था जिसे हरियाणा में एक हद तक आत्मसात् किया गया। यह परिप्रेक्ष्य लोगों को अपनी बदहाली के कारणों को समझने और संगठित होकर उन्हें दूर करने के प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था। इन परियोजनाओं में 'जन भागीदारी' का पहलू मूल रूप से शामिल था और यही इन अभियानों की सफलता का मापदंड भी था। दूसरा पहलू यह था कि इसमें 'स्वयंसेवी कार्य' करने की प्रेरणा बद्धमूल थी और यह पार्टी की समझ का एक और महत्त्वपूर्ण आयाम था।
         
हरियाणा में 'पानीपत की चौथी लड़ाई' के नाम से पार्टी की देखरेख में चले साक्षरता अभियान की विशेष बात यह रही कि ग्रामीण क्षेत्रों में हमारी पहुंच बनी। पानीपत में ही अनेक गांवों में कला जत्थे पहुंचे, अक्षर सैनिकों के प्रशिक्षण हुए और समुदाय के सहयोग से कक्षाएं लगीं। अन्य ज़िलों से गए हुए पार्टी कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत की। अभियान में प्रशासन की हिस्सेदारी और सरकारी वित्तीय अनुदान उपलब्ध होने के चलते लोगों के बीच पहुंच बनाना अपेक्षाकृत आसान हो गया। पार्टी ने समय-समय पर इस अभियान की कार्यवाहियों की समीक्षा की, लोगों तक व्यापक पहुंच की संभावनाओं का ठीक-ठीक आकलन किया और साथ ही सरकारी परियोजनाओं की सीमाओं को भी समझा। यह समझ बनी कि अन्य ज़िलों में भी संभावनाओं के अनुसार पार्टी के साथी इन अभियानों में शामिल हों ताकि जनता के बीच साक्षरता, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक मुद्दों पर विमर्श चलाया जा सके। सिरसा, हिसार, जींद, भिवानी, कैथल, रोहतक आदि ज़िलों में पार्टी के साथियों ने एक समय पर तो नेतृत्वकारी भूमिका निभाई लेकिन कुछ समय पश्चात् कुछ ज़िलों में या तो प्रशासन के साथ विवाद उत्पन्न हो गए या फिर पार्टी के साथियों के बीच मतभेद उभरे। एक तीसरी स्थिति भी बनी जिसमें पार्टी के साथी ज़िला के साक्षरता अभियान में मुख्य भूमिका में नहीं थे। हिसार और एक हद तक जींद में तो पार्टी सदस्यों के बीच मतभेद बने, हालांकि जींद में पार्टी के एक हिस्से ने कार्य को संभालने की कोशिश की लेकिन हिसार में तो मतभेद इतने तीखे हुए की मुख्य साथियों में से एक को तो पार्टी से निष्कासित होना पड़ा और गैर पार्टी सदस्य को साक्षरता अभियान की मुख्य भूमिका में लाना पड़ा। भिवानी में प्रशासन के साथ विवाद के उभरने से पार्टी को अभियान से अलग होना पड़ा। 1991-95 के चार वर्षों में साक्षरता अभियान में किए गए कार्यों की समीक्षा तो हुई लेकिन यह समीक्षा भी मौखिक ही रही। कोई लिखित दस्तावेज़ तैयार नहीं हो सका। फिर भी समीक्षा के कुछ बिंदु जो आज भी हमारे विमर्श में बने रहते हैं, निम्नलिखित हैं :
          1.  हमारी पहुंच का दायरा बढ़ा और हम शहरी मध्यवर्ग से आगे बढ़कर ग्रामीण समुदायों में पहुंच बना सके।
          2.  इन समुदायों में से भी महिलाएं, दलित तबके और युवा ज़्यादा शामिल हुए और उनकी अपेक्षाएं और हिस्सेदारी एक सामाजिक प्रगतिशील प्रक्रिया के अंश रूप में होती हुई नज़र आई।
          3. हरियाणा के समाज में स्वयंसेवी भावना का प्रसार हुआ और जाति एवं पितृसत्ता जैसे अर्द्ध सामंती बंधनों में कुछ ढील आई।
       
प्रशासनिक हलकों में भी कुछ व्यक्ति इस कार्य को अपना निजी भावनात्मक समर्थन देते हुए दिखाई दिए। हमारी क्षमताओं में बढ़ोत्तरी हुई, जिसके चलते नवसाक्षरओं की पठन-पाठन सामग्री (कायदे एवं पुस्तकें), नाटक, गीत, रागनी आदि लिखे गए और गांव में भी पढ़ने-लिखने का वातावरण बना।

कहीं-कहीं तो जन-भागीदारी और रचनात्मक कार्यों का प्रभाव इतना सघन था कि ग्रामीण समाज में जनजागृति का वातावरण बनता हुआ दिखाई पड़ता था।

इन पहलुओं के साथ-साथ हमारी कमज़ोरियां भी अनेक थीं। जैसे - कुछ ज़िलों में पार्टी सदस्यों के बीच मतभेद उभरना, विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य का समेकन न हो पाना (हालांकि साक्षरता अभियान के दौरान कहीं-कहीं विज्ञान प्रसार की गतिविधियां होती थीं)।
         
साधनों की उपलब्धता ने व्यक्तियों के बीच गहरी समझ और तालमेल को रिप्लेस कर दिया क्योंकि साधनों की मदद से लोगों में पहुंचने का कार्य आसान हो गया और आपसी सहयोग से योजनाएं बनाना, क्रियान्वित करना, अनुभवों को सहेजना, समीक्षाएं करना आदि महत्त्वपूर्ण कार्य छूटते गए। इन्हीं कारणों से परियोजनाओं के बाद की स्थिति पर भी स्पष्ट सांझी समझ नहीं बन पाई और अभियानों के बाद सांगठनिक कंसोलिडेशन कम हो पाया। विज्ञान मंच में भी जब परियोजनाओं का दौर शुरू हुआ था तब शुरुआत के समय में तो वैचारिक विमर्श था लेकिन बाद में मात्र ढांचा ही रह गया। इसी तरह साक्षरता अभियान में भी हुआ। इस दौरान सामाजिक हस्तक्षेप की पार्टी की नज़र का भी विखंडन होने लगा। बौद्धिक कार्य और सांगठनिक कार्य के बीच एक रेखा उभरने लगी जिसके चलते फ़ील्ड बनाम विचारधारात्मक कार्य की बाइनरी बनती चली गई। शीर्ष के नेतृत्वकारी साथियों के बीच वैचारिक मतभेद बने जो उनके आपसी संबंधों को भी प्रभावित करने लगे। इस समय तक भी पार्टी ने परियोजनाओं के प्रभावों को गंभीरता से विश्लेषित करके कोई प्रपत्र आदि तैयार नहीं किया था, हालांकि इस बात को रेखांकित किया जाने लगा था कि हमें परियोजनाओं में निहित खतरों और इनसे बनने वाले रुझानों के प्रति अधिक सचेत होकर कार्य करने की ज़रूरत है। विज्ञान मंच की परियोजनाओं और साक्षरता अभियानों की परियोजनाओं के लक्ष्य-उद्देश्यों तथा कार्य-नीति में कुछ अंतर ज़रूर थे, फिर भी सरकारी अनुदान का तत्त्व समान था जो गुणात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था।
         
1995 तक राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में भी मिशनरी प्रेरणा का ह्रास हो चुका था और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी द्वारा निर्मित भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के पास भी साक्षरता अभियानों को कंसोलिडेट करने के लिए ज़रूरी अंतर्दृष्टि का अभाव बनने लगा। ऐसी परिस्थितियों में देश के लगभग 350 ज़िलों में जो पहुंच बनी थी, उनमें से आधे से भी कम ज़िलों में हमारी कोशिशें और गतिविधियां जारी रह पाईं। हरियाणा में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। उदाहरण के लिए पानीपत ज़िले के अभियान के उपरांत हम केवल समालखा खंड के कुछ गांवों में ही सक्रिय रह पाए। परियोजनाओं में भागीदारी खत्म होना और आगे की स्पष्ट योजनाओं के अभाव के चलते एक बार फिर इस क्षेत्र में शिथिलता आने लगी।  राष्ट्रीय स्तर पर भी दृष्टि धूमिल हुई लेकिन वहां के स्तर पर फिर भी राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ तालमेल बना रहा जिसके चलते एक और अवसर मिला। अब की बार प्रौढ़ शिक्षा के लिए शैक्षणिक और रणनीतिक कामों को करने के लिए राज्य संसाधन केंद्रों की स्थापना और संचालन का कार्य प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के अनुभव और साख के चलते 5 राज्यों में संसाधन केंद्र चलाने का कार्य मिला - हरियाणा, मध्य प्रदेश, असम, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश। हरियाणा में पार्टी के स्तर पर एक बार फिर से मंथन शुरू हुआ कि यह केंद्र ले लिया जाए और इसे चलाने के लिए हमारी समझ क्या होनी चाहिए। अब तक हमने परियोजनाओं के अनुभवों को भले ही गहनता के साथ आत्मसात् करके सामूहिक समझ विकसित नहीं की थी परंतु फिर भी यह ज़रूर था कि परियोजनाओं की सीमाओं पर चर्चाएं हो रही थीं जिनका नतीजा यह था कि हमें परियोजना में काम तो करना चाहिए लेकिन समय-समय पर उसकी समीक्षा ज़रूरी है। दूसरी बात जो धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी थी वह यह थी कि परियोजनाओं की सीमाओं में ही रह कर कोई बड़ा समाज-सुधार आंदोलन तो विकसित नहीं किया जा सकता। साक्षरता अभियान में युवा, दलित और महिलाओं की भागीदारी ने एक आंदोलन की संभावनाएं ज़रूर प्रस्तुत कर दी थी। इन संभावनाओं को देखते हुए और परियोजनाओं की सीमाओं को समझते हुए यह विमर्श शुरू कर लिया गया था कि हमें परियोजनाओं में कार्य करने के साथ-साथ एक स्वतंत्र संगठन बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। परियोजनाओं में कार्य करने के अब तक अनुभवों की एक झलक पहले प्रस्तुत की गई है। फिर भी सैद्धांतिक समझ यही जारी रही कि दोनों कार्यों को साथ-साथ चला जाना चाहिए। राज्य संसाधन केंद्र का संचालन हमने 1995 से लेकर 2015 (लगभग 20 वर्षों) तक किया। पहले की परियोजनाओं का अनुभव तो हमारे पास था परंतु इस केंद्र का संचालन संस्थान के रूप में किया जाना था जो पहली बार का ही अनुभव बना। राष्ट्रीय केंद्र ने यह संस्थान हमारे आंदोलन को दिलवाने में तो मदद ज़रूर की लेकिन आगे के कार्यों के लिए वहां से भी दिशा-निर्देशन नहीं हो पाया। हमने यहां अब तक के अनुभवों से जो समझ विकसित की थी, उसके अनुसार कार्य शुरू किया। शुरुआत के समय में ही केंद्र के परिप्रेक्ष्य को लेकर सभी लोगों की राय अलग-अलग थी। पार्टी से बाहर के साथी भी हमारे केंद्र का अहम हिस्सा थे और पार्टी के भीतर के साथियों ने भी मत-भिन्नता थी, फिर भी कार्य हुआ। प्रथम चरण में यह स्पष्ट हुआ कि हमें केंद्र के कार्यों को आंदोलन के साथ न केवल तालमेल के साथ करना चाहिए बल्कि हमें इन तमाम कार्यों को आंदोलन को मज़बूत बनाने की दृष्टि से करना चाहिए। यह दृष्टि मूलतः सही थी परंतु व्यवहार में कुछ अंतर्विरोध भी बन रहे थे जिन्हें पार्टी की कमेटियों में चर्चा करके सुलझाने का कार्य नहीं हो पाया। इसके चलते मतभिन्नताएं, मतभेदों और फिर मनभेदों में बदल गईं। इन परिस्थितियों में जो भी थोड़े-बहुत जनोन्मुखी प्रयोग तथा जन आंदोलन के समरूप कार्य हो भी पाए तो उसके सकारात्मक प्रभाव अपेक्षाकृत कम होते गए और निरुत्साहित करने वाला वातावरण बनता गया। इसके ही फलस्वरूप सामूहिक विवेक के साथ स्वतंत्र संगठन खड़ा करने का कार्य भी ठीक से नहीं हो पाया और केंद्र के संसाधनों का उपयोग भी बेहतर नहीं हो पाया। हालांकि केंद्र के साधनों के ज़रिये ही नाटक और पुस्तकों के क्षेत्र में जनपक्षीय कार्य हुआ। एक पत्रिका भी लगातार प्रकाशित हुई और समाज के शिक्षित मध्य वर्गीय हिस्से में भी हमारी पहुंच बढ़ी। इसके बावजूद आपसी मतभेदों का दुष्प्रभाव पड़ा जिसके चलते स्वतंत्र संगठन बनाने का कार्य भी अवरुद्ध हुआ और साथ ही इन संस्थानों को भी हम आंदोलन का हिस्सा नहीं बना पाए।
     इस दौर में परियोजना बनाम संगठन की बहस छिड़ गई जिसमें द्वंद्वात्मक दृष्टि का अभाव रहा और व्यक्तिगत कार्यों का महिमामंडन होने लगा। आरोप-प्रत्यारोप बने, कुछ पार्टी सदस्यों ने दूसरों को अवरोध के तौर