Saturday, 29 July 2017

लाइब्रेरी


1 किताबें मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक विश्वसनीय मित्र हैं।
2 इनमें वह शक्ति है जो मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है 
3 कठिन से कठिन समस्याओं के निदान के लिए बल प्रदान करती है। 
4 जिस व्यक्ति को पुस्तकों से लगाव है वह कभी भी स्वयं को एकाकी व कमजोर अनुभव नहीं कर सकता है।
5  पुस्तकें मनुष्य के आत्म-बल का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। 
6 महान देशभक्त एवं विद्वान लाला लाजपत राय ने पुस्तकों के महत्व के संदर्भ में कहाथा: ” मैं पुस्तकों का नर्क में भी स्वागत करूँगा। इनमें वह शक्ति है जो नर्क को भी स्वर्गबनाने की क्षमता रखती है। ” 
7  समझदार  लोग अपना समय काव्य-शास्त्र अर्थात् पठन-पाठन में व्यतीत करते हैं वहीं मूर्ख लोगों का समय व्यसन, निद्रा अथवा कलह में बीतता है। 
8 वर्तमान में छपाई की कला में अभूतपूर्व विकास हुआ है। आधुनिक मशीनों के आविष्कार से पुस्तकों के मूल्यों में काफी कमी आई है तथा साथ ही साथ उनकी गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है।
9  प्राचीन काल की तुलना में आज पुस्तकें बड़ी सरलता से प्राप्त भी हो जाती हैं परंतु सभी वांछित पुस्तकों को खरीदना व उनका संग्रह जन सामान्य के लिए एक दुष्कर कार्य हे।
10  इन परिस्थितियों में पुस्तकालय का योगदान बहुत अधिक बढ़ जाता है। पुस्तकालय (पुस्तक+आलय) अर्थात् वह स्थान जहाँ पुस्तकें संगृहीत होती हैं। 
11 सामान्य रूप से सरकार व समाजसेवी संस्थानों द्‌वारा खोले गए पुस्तकालयों में व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के तथा पुस्तकालयों के नियमों के अधीन पुस्तकों का लाभ उठा सकते हैं। 
12 देश के लगभग समस्त छोटे-बड़े शहरों में इस प्रकार के पुस्तकालय उपलब्ध हैं। कुछ शहरों एवं ग्रामीण अंचलों में चलते-फिरते पुस्तकालय की भी व्यवस्था है जिससे साप्ताहिक क्रमानुसार लोग उक्त सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। 
13 किसी  भी समाज अथवा राष्ट्र के उत्थान में पुस्तकालयों का अपना विशेष महत्व है। इनके माध्यम से निर्धन छात्र भी महँगी पुस्तकों में निहित ज्ञानार्जन कर सकते हैं।
14  पुस्तकालय में एक ही विषय पर अनेक लेखकों व प्रकाशकों की पुस्तकें उपलब्ध होती हैं जो संदर्भ पुस्तकों के रूप में सभी के लिए उपयोगी होती हैं। 
15 कुछ प्रमुख पुस्तकालयों में विज्ञान व तकनीक अथवा अन्य विषयों की अनेक ऐसी दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध होती हैं जिन्हें सहजता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 
16 अत: हम पाते हैं कि पुस्तकालय ज्ञानार्जन का एक प्रमुख श्रोत है जहाँ श्रेष्ठ लेखकों के महान व्याख्यानों व कथानकों से परिपूर्ण पुस्तकें प्राप्त की जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त समाज के सभी वर्गों- अध्यापक, विद्‌यार्थी, वकील, चिकित्सक आदि के लिए एक ही स्थान पर पुस्तकें उपलब्ध होती हैं जो संपर्क बढ़ाने जैसी हमारी सामाजिक भावना की तृप्ति में भी सहायक बनती हैं। 
17 पुस्तकालयों में मनोरंजन संबंधी पुस्तकें भी उपलब्ध होती हैं। पुस्तकालयों का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि पुस्तकें मनोरंजन के साथ ही साथ ज्ञानवर्धन में भी सहायक सिद्‌ध होती हैं। 
18 पुस्तकालयों में प्रसाद, तुलसी, शेक्सपियर, प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकारों, कवियों एवं अरस्तु, सुकरात जैसे महान दार्शनिकों और चाणक्य, मार्क्स जैसे महान राजनीतिज्ञों की लेखनी उपलब्ध होती है। 
19 इन लेखनियों में निहित ज्ञान एवं अनुभवों को आत्मसात् कर विद्‌यार्थी सफलताओं के नए आयाम स्थापित कर सकता है। 20 अत: पुस्तकालय हमारे राष्ट्र के विकास की अनुपम धरोहर हैं। इनके विकास व विस्तार के लिए सरकार के साथ-साथ हम सभी नागरिकों का भी नैतिक कर्तव्य बनता है जिसके लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है।
बात भावनाओ या आस्था की है ही नहीं ।
====बात आस्था की होती तो, चूहे मारने वाली दवा
पर रोक होती आखिर वो गणेश जी का वाहन जो है


बात आस्था की होती तो, सांप मारने वाले जेल में होते आखिर वो भोलेनाथ का कंठहार है।


बात आस्था की होती तो, पूरे भारत में सूअर की भी गाय की
 तरह पूजा होती क्योंकि वो भी तो विष्णु का अवतार है।


बात आस्था की होती तो, बन्दर प्रयोगशालाओ में न मरते।
 क्योकी वो हनुमानजी के अवतार हैं ।


बात सिर्फ देश में अशांति और आपसी नफरतें फैलाकर राजनीती करने की है।
कृपया विचार अवश्य करें।
हरियाणा में मगरमच्छ प्रजनन केंद्र कहाँ स्थित है ?--भौर सैदां --कुरुक्षेत्र
हरियाणा में गिद्ध संरक्षण एवम प्रजनन केंद्र कहाँ स्थित हैं ? -- पिंजौर --पंचकूला
हरियाणा में मोर और चिंकारा प्रजनन केंद्र कहाँ हैं ? झाबुआ --रेवाड़ी
हरियाणा साहित्य अकादमी का गठन कब हुआ -- 09 जुलाई , 1970 

पुस्तकालयों को बचाने की मुहिम

पुस्तकालयों को बचाने की मुहिम

library02आजकल हिंदी साहित्य के तमाम मसले सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर हल हो रहे हैं. विवाद से लेकर विमर्श तक. कुछ लेखकों को फेसबुक की अराजक आज़ादी ने एक ऐसा मंच मुहैया करवा दिया है जहां वो अपनी अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं. कोई वहां बेहतरीन कवि, कहानी, उपन्यासकार, आलोचक और पत्रकार की सूची चिपकाते रहते हैं तो कई लोग उसको अपने प्रचार का प्लेटफॉर्म मानकर उपयोग कर रहे हैं. फेसबुक किसी भी मुद्दे या घटना के ख़िलाफ़ या समर्थन के अभियान का मंच भी बन गया है. इस आभासी दुनिया की अराजक आज़ादी के दौर में कुछ गंभीर मसले भी अभी फेसबुक पर उठ रहे हैं. इसी तरह का एक गंभीर अभियान फेसबुक पर चल रहा है- चलो करनाल. साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों से करनाल जाने की अपील इस वजह से की जा रही है कि वहां के पाश पुस्तकालय को बंद करने की साज़िश हो रही है. पाश पुस्तकालय ने करनाल और आसपास के इलाके में साहित्यिक सांस्कृतिक चेतना जगाने का और एक सांस्कृतिक संस्कार विकसित करने का काम किया है. वहां पुस्तकालय के अलावा देश भर के लेखकों और रंगकर्मियों का जमावड़ा होता रहा है. लेकिन अब उस साहित्यक सांस्कृतिक केंद्र को बंद करने की कोशिश की जा रही है. हिंदी का साहित्य समाज इससे उद्वेलित है. कुछ दिनों पहले इस तरह की ख़बरें आई थीं कि दिल्ली की मशहूर और ऐतिहासिक लाइब्रेरी-दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा है. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बदहाल है, वहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. कर्मचारियों के वेतन पर संकट के अलावा पुस्तकालय की किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को सहेजने के लिए भी आवश्यक धनराशि की कमी है. लिहाजा ऐतिहासिक महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का ख़तरा उत्पन्न हो गया है. कमोबेश यही हालत देशभर के पुस्तकालयों का है. यह हालत तो तब है कि जबकि पुस्तकालयों में किताबों की सरकारी ख़रीद के लिए लंबा चौड़ा बजट है. किताबों की ख़रीद के लिए संस्कृति मंत्रालय के अधीन राजा राम मोहन राय के नाम से एक ट्रस्ट है. यह ट्रस्ट देशभर के सरकारी और गैरसरकारी पुस्तकालयों को किताबों की ख़रीद के लिए अनुदान देता है. इस ट्रस्ट में विभिन्न मंत्रालयों और सरकारी विभागों के अधिकारियों की अलग अलग समिति होती है. इसके अलवा सांसदों के स्थानीय विकास निधि में भी एक निश्‍चित धनराशि पुस्तकों के लिए आरक्षित करने का भी प्रावधान है. सांसद उस धनराशि का उपयोग हर साल अपने इलाके के स्कूलों में किताबें ख़रीदने के लिए अनुदान के तौर पर दे सकते हैं. बावजूद इसके हमारे देश में पुस्तकालय मरणासन्न हो रहे हैं. एक ज़माना था जब पुस्तकालयों की अहमियत इतनी ज्यादा थी कि उसके बगैर छात्रों और शोधार्थियों का काम ही नहीं चलता था. मैं कई ऐसे लेखकों को जानता हूं जो किसी लेखक की रचनावली पर काम करने के सिलसिले में कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी में महीनों तक किताबें और पत्र-पत्रिकाएं छानते रहे हैं. मुझे नब्बे के दशक के अपने दिल्ली विश्‍वविद्यालय के शुरुआती दिन भी याद आते हैं जब हम अपने छात्र जीवन के दौरान दिल्ली विश्‍वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे. यह नियमितता वैसी ही थी जैसी कि दफ्तर जाने की होती है. तय समय पर घर से निकल जाना और फिर भोजनावकाश के बाद फिर से वहां जाकर शाम तक डटे रहना. पुस्तकालय में पढ़ने के माहौल के अलावा भी नियमितता की एक अन्य वजह थी. वह वजह थी वहां पहुंचने वालों छात्रों की भीड़. अगर आप दस मिनट भी लेट हो गए तो आपको लाइब्रेरी में जगह नहीं मिलती थी और आपको निराश होकर वापस लौटना पड़ता था. लेकिन अब वहां के हालात भी बदलने लगे हैं. सभी लाइब्रेरी की तरह वो भी उदासनीता का शिकार होने लगा है.
पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता और उनकी बदहाली के लिए हमें इसके सामाजिक और अन्य कारणों की पड़ताल करनी चाहिए. जब हम अपने आसपास देखते हैं तो ये सारी वजहें हवा में तैरती नज़र आती हैं. कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों की दुर्गति के लिए इंटरनेट ज़िम्मेदार है. अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं. आपने कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है. इस तर्क में ताक़त है और हो सकता है कि पुस्तकालयों के प्रति हमारी उपेक्षा का यह भी एक कारण हो. लेकिन पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा की जो सबसे बड़ी वजह है वो है हमारी शिक्षा पद्धति. हमारी शिक्षा पद्धति ही इतनी दोषपूर्ण है कि वहां पुस्तकालयों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता है. जिस तरह से देशभर में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का जाल फैला है उसने भी पुस्तकालयों को स्कूल की शोभा भर बना दिया है. अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इस बात पर ज़ोर तो रहता है कि छात्रों को खेलकूद, नृत्य संगीत से लेकर स्केटिंग में रुचि विकसित की जाए, लेकिन क्या इन स्कूलों में छात्रों को पुस्तकालयों से उपन्यास या कहानी या कोई अन्य किताब पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है. अगर हम इसका उत्तर ढूंढते हैं तो अंधकार दिखाई देता है. आज हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा में आने वाले अंक इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उसके अलावा किसी अन्य चीज़ पर छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों का फोकस ही नहीं रहता है. छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग की जाने लगी है कि उसके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है. अन्य पुस्तकों का महत्व रहे भी क्यों क्योंकि वो पाठ्य पुस्तक तो हैं भी नहीं.

Wednesday, 26 July 2017

विज्ञान, वैज्ञानिक नजरिया और हमारा समाज

विकल्प

सामाजिक सांस्कृतिक चेतना और संवाद का मंच

विज्ञान, वैज्ञानिक नजरिया और हमारा समाज

 

विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिया के बीच गहरा सम्बन्ध होता है । लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है  । एक तरफ विज्ञान और तकनोलोजी की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ के जनमानस में वैज्ञानिक नजरिये के बजाय अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगापंथ, रूढ़ियों और परम्पराएँ तेजी से पाँव पसार रही हैं । वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सबसे अधिक फायदा उठाने वाले तबके ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर अतीत के प्रतिगामी, एकांगी और पिछड़ी मूल्य–मान्यताओं को महिमामंडित कर रहे हैं । वैज्ञानिक नजरिया, तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धर्म निरपेक्षता की जगह अंधश्रद्धा, संकीर्णता और असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा रहा है । 


समाचार पत्रों में तांत्रिकों द्वारा बच्चों की बली देने या महिलाओं का यौन शोषण करने, डायन होने का आरोप लगाकर महिलाओं की हत्या करने तथा झाड़–फूंक, जादू–टोना और गंडा–ताबीज के द्वारा लोगों को ठगने की खबरें अक्सर आती रहती हैं । अखबारों में बंगाली बाबा, तांत्रिक, चमत्कारी पुरुष, ज्योतिषाचार्य के विज्ञापन छपते हैं । जप–तप, हवन, अंधविश्वास  और फलित ज्योतिष को विज्ञान सिद्ध किया जाता है और अब महाविद्यालयों में बजाप्ता ऐसे छद्म–विज्ञान का पठन–पाठन भी होने लगा है । टीवी चैनलों के मार्फत मनोकामना पूर्ण करने वाले बड़े–बड़े दावों के साथ यंत्र–तंत्र और अंगूठी बेचे जाते हैं । अंधविश्वास, पुनर्जन्म और भूत–प्रेत के किस्से प्रसारित किये जाते हैं । 


अंधविश्वास और चमत्कारों के पीछे पागल लोगों की भीड़ में उच्च शिक्षित और सम्मानजनक पेशों से जुड़े लोगों, उच्च अधिकारियों और नेताओं–मंत्रियों की अच्छी खासी तादाद देखने को मिलती है । रत्न जड़ित अंगूठियों और गंडा–ताबीज पहनना, बाबाओं के डेरे या मजारों पर जाना , मूहूर्त निकाल कर हर काम करना उनकी रोजमर्रे की जिन्दगी का हिस्सा है । ‘अलोकिक शक्ति’ वाले चमत्कारी पुरुषों के अवतार के जो भी नये–नये मामले समाने आते हैं, उनकी भक्त–मंडली में बड़े–बड़े नाम–पद धारी लोग शामिल होते हैं । समाज के शीर्षस्थ लोगों का यह आचरण आम जनता में अंधश्रद्धा और चमत्कार को अनुकरणीय बनाता है । राजनीतिक पार्टियों के नेता भी ऐसे मठाधीशों, बाबाओं और प्रवचनकर्ताओं के साथ साँठ–गाँठ करते हैं जिनके पीछे बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ (वोट) हो ।


प्रकृति और इंसान जाति के बीच निरन्तर जारी संघर्ष के जिस मुकाम पर आज हम खड़े हैं वहाँ विज्ञान और तकनोलोजी के एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामें हमारे चारों ओर दिखाई दे रहे हैं । समचना तकनोलोजीµ कम्प्यूटर, संटेलाइट और इन्टरनेट के संयोग ने देश–काल का फासला काफी कम कर दिया है । नये–नये अविष्कारों के चलते भोजन , वस्त्र, आवास ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य, शि़क्षा, यातायात औरमनोरंन जैसी रोजमर्रे की जरूरतों का स्तर दिनों–दिन बेहतर होता जा रहा है । हालाँकि यहाँ भी हमारा सामना एक विरोधाभासपूर्ण स्थिति से होता हैµ विज्ञान और तकनोलोजी की अभूतपूर्व सफलताओं के बावजूद दुनिया के करोड़ों लोग भूखे–नंगे, बेघर, बीमार और कुपोषित हैं । जिन बीमारियों का इलाज बहुत आसान और सस्ता है, उनकी चपेट में आकार हर साल करोड़ों लोग भर जाते हैं । बाढ़ समखा, भूकम्प, लू और ठण्ड से मौत की खबरे आती रहती हैं । जाहिर है की विज्ञान और तकनोलोजी की उपलब्धियाँ मुठ्ठीभर मुनाफाखोरों की गिरफ्त में हैं और केवल ऊपरी तबके के चंद लोगों तक हो सकती हैं । इन उपलब्धियों को सर्वसुलभ बनाने के बजाय बहुसंख्य लोगों को भाग–भरोसे छोड़ दिया जाता है ।


हमारे देश के करोड़ों लोगों तक ज्ञान–विज्ञान की रोशनी अब तक पहुँच पायी है । ऐसे में समाज के अधिकांश लोगों में वैज्ञानिक नजरिये का अभाव कोई आश्चर्य की बात नहीं । लेकिन जिन लागों को ज्ञान–विज्ञान की जानकारी और उसकी उपलब्धियाँ हासिल हैं, वे भी वैज्ञानिक नजरिया अपनाते हों, तर्कशील और विवेकी हों, यह जरूरी नहीं । इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण 1995 में देखने को मिला जब गणेश की मूर्ति के दूध पीने का अफवाह फैला था । उस दिन मंदिरों के बाहर दूध लेकर कतार में खड़े या रेलमपेल मचा रहे लोगों में ज्यादातर शिक्षित लोग ही थे । दरअसल गाँव–कस्बों तक यह अफवाह पहुँच नहीं पाया था क्योंकि इसे मोबाइल फोन और टेलीवीजन के माध्यम से फैलाया गया था, जिनकी पहुँच उस दौरान शहरों तक ही सीमित थी । उस भीड़ में कई वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर और अन्य पढ़े–लिखे लोग भी शामिल थे । अगर कुछ तर्कशील लोगों ने इस भेडियाघिसान का विरोध किया भी तो उन्हें नास्तिक और विधर्मी बताते हुए अलगाव में डाल दिया गया ।


विज्ञान की जीत के मौजूदा दौर में यदि वैज्ञानिक नजरिया लोगों की जिन्दगी का चालक नहीं बन पाया तो इसके पीछे कर्इ्र कारण हैं । समाज में व्याप्त अंधविश्वास के पीछे अज्ञान के अलावा, अज्ञात का भय, अनिश्चित भविष्य समस्या का सही समाधान होते हुए भी लोगों की पहुँच से बाहर होना, समाज से कट जाने का भय, परम्पराओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति, धर्मभीरुता और ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धा, धर्म गुरुओं , महापुरुषों या मठाधीशों के प्रति अंधविश्वास जैसे कई कारण होते हैं । जो विज्ञान का अध्ययन–अध्यापन करने वाला कोई भौतिकशास्त्र का शिक्षक यह जानता है कि पदार्थ को उत्पन्न या नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन निजी जिन्दगी में वह किसी बाबा द्वारा चमत्कार से भभूत पैदा करने या हवा से फल या अंगूठी निकालने में यकीन करता है । यह उस शिक्षक का अज्ञान नहीं बल्कि वैज्ञानिक नजरिये का अभाव है । उसके लिये विज्ञान की जानकारी केवल रोजी–रोटी कमाने का जरिया है । जीवन में उसे उतारना या कथनी–करनी के भेद को मिटाना उसकी  मजबूरी नहीं । और तो और ऐसे अर्धज्ञानी अक्सर कुतर्क के जरिये अंधविश्वास को सही ठहराने में विज्ञान का इस्तेमाल करने से भी बाज नहीं आते ।


अंधविश्वास को बढ़ावा देने के पीछे कुछ धंधेबाजों का निहित स्वासर्थ भी एक महत्त्वपूर्ण कारण है । ऐसे लोग छद्म विज्ञान और कुतर्क का सहारा लेकर अंधविश्वासों, कुरीतियों, कर्मकाण्डों और बेसिर–पैर की बातों को सही ठहराते हैं । लोगों की चेतना को कुन्द करके उनकी आँखों में धूल झोंककर, अपनी झोली भरने वालों का ऐसा करना स्वाभाविक ही है । ऐसे ही स्वार्थी तत्व विज्ञान की आड़ लेते हुए विज्ञान की जगह चमत्कार और अंधविश्वास को स्थापित करने तथा समाज की प्रगति को रोकने का लगातार प्रयास करते रहते हैं । 
विज्ञान की उपलब्धियों का इस्तेमाल किस तरह सामाजिक कुरीतियों औ सड़ी–गली परम्पराअें को जारी रखने और उन्हें मजबूत बनाने के लिये किया जा रहा है, इसके अनेक उदाहरण हैं । इनका बर्बरतम और क्रूरतम उदाहरण है लिंग परीक्षण कराकर गर्भ में ही लड़कियों को मार देना । लिंग परीक्षण और भु्रण हत्या के खिलाफ कानून रहा है और इसे अंजाम देने वाले शिक्षित–समृद्ध तबके के लोग ही हैं ।


जाहिर है कि आज के दौर में अंधविश्वास को मानने और उसे बढ़ावा देने वाले लोगों की स्थिति आदिकाल के हमारे उन पुरखों के समान नहीं है जो प्रकृति की विकराल शक्ति के आगे लाचार थे । आज जिन ढेर सारे रहस्यों से पर्दा उठ चुका है, उन्हें भी निहित स्वार्थों के कारण स्वीकार न करने वाली जड़मति ही अंधविश्वास के मूल में है । गुफाओं और जंगलों से अन्तरिक्ष तक की अपनी यात्रा में मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों को समझा, उसके नियमों और कार्य–कारण सम्बन्धों का पता लगाया और उनकी मदद से प्रकृति को काफी हद तक अपने वश में कर लिया । आदिकाल में अपने अस्तित्व को बचाने के लिये प्रकृति से संघर्ष करते हुए मनुष्य ने आगख्, पहिया, पत्थर के औजार से अपनी ज्ञान–विज्ञान की यात्रा शुरू की । अपने सामूहिक प्रयासों और उससे प्राप्त अनुभवों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया । उस काल में मनुष्य की जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा ने ढेर सारे दर्शन को आगे बढ़ाया  और काफी हद तक सत्य की खोज में सफल हुए । अनुभव संगत ज्ञान के आधारशिला पर आधुनिक विज्ञान का महल खड़ा हुआ ।


प्राचीन काल की यह विकास यात्रा मध्यकाल में आकर अवरुद्ध हो गयी, जब सामन्ती समाज में धर्मकेन्द्रित सत्ता की स्थापना हुई । सामन्ती शासकों का पूरी दुनिया में धर्म के साथ गँठजोड़ कायम हुआ और  अपने शोषण–शासन को मजबूत बनाने के लिए उन्होंने धर्मभीरुता, कट्टरता और अन्धश्रद्धा को बढ़ावा दिया । धार्मिक–दार्शनिक रहस्यवाद सामन्तों की सत्ता कायम रखने का उपकरण बन गया । यह पूरा दौर इतिहास का अंधायुग था जिसमें इक्के–दुक्के प्रयासों को छोड़ दें, तो ज्ञान–विज्ञान का विकास ठहराव और गतिरोध का शिकार बना रहा ।


पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप के पुनर्जागरण काल में ज्ञान–विज्ञान की नयी–नयी कोंपले फूटनी शुरू हुईं । गैलीलियो, कॉपरनिकस और ब्रूनों जैसे अनेक वैज्ञानिकों ने धार्मिक मतों पर प्रश्न खड़ा किया और वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा लोगों को यह बताया कि संसार और प्रकृति के बारे में धार्मिक मान्यताएँ गलत हैं । इस प्रयास में कितने ही वैज्ञानिकों को अमानुषिक यातनाएँ दी गयी  । लेकिन सच्चाई को दबाना सम्भव नहीं हुआ। कृषि प्रधान, सामन्ती प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के गर्भ से उत्पन्न नवोदित वाणिज्यिक पूँजीपति वर्ग ने अपने लाभ के लिये ही सही, ऐसे हर नये खेज का समर्थन दिया । समुद्री मार्ग की खेज और नये–नये देशों तक अपना व्यापार फैलाने के दौरान उन्हें ऐसे अविष्कारों की जरूरत थी । लेकिन उनका रास्ता आसान नहीं था । लोगों के दिमाग में राजा और ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धा और ढेर सारे सामन्ती विचार और मूल्य भरे हुए थे । इनसे मुक्त किये बिना समाज को आगे ले जाना सम्भव नहीं था ।


नवजात पूँजीपति वर्ग के लिए दो कारणों से विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये को बढ़ावा देना जरूरी हो था । पहला, उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के लिए नयी–नयी मशीनों और उत्पादन के साधनों का पता लगाना जरूरी था, जो विज्ञान के विकास से सीधे जुड़ा हुआ था । दूसरा, सामन्ती शासन की जकड़बन्दी को तोड़ने के लिए जरूरी था कि लोगों को धार्मिक, कट्टरपंथ और अंधविश्वास से मुक्त कर के उन्हें तर्कशील बनाया जाय । इस तरह पूँजीपति वर्ग के सहयोग से उस दौर के दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने सामन्तवाद को चैतरफा चुनौती दी और ईश्वर केन्द्रित, सामन्ती समाज की जगह मानवकेन्द्रित पूँजीवादी समाज की वैचारिक बुनियाद रखी । किसी भी बात पर आँख मूँदकर विश्वास करने के बजाय उसे तथ्य और तर्क की कसौटी पर परखने का चलन बढ़ा । प्रकृति के रहस्यों से ज्यों–ज्यों पर्दा हटता गया, धर्म की जगह विज्ञान की प्रतिष्ठा बढ़ती गयी । इस पूरे दौर में विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिया साथ–साथ आगे बढ़ते गये । केवल वैज्ञानिक और दार्शनिक ही नहीं, बल्कि जनसाधारण भी जिन नये विचारों को सही मानते थे, उन्हें अपने जीवन में उतारते थे और इसके लिये कोई भी कुर्बानी देने के लिये तैयार रहते थे ।


आज हम एक विचित्र स्थिति का सामना कर रहे हैंµ विज्ञान जितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है वैज्ञानिक नजरिया उतनी ही तेजी से पीछे जा रहा है । ऐसा क्यों है ?


अपने शैशव और यौवन काल में पूँजीपति वर्ग ने सामन्तवाद के खिलाफ जितनी दृढ़ता के साथ संघर्ष किया था वह बाद के दौर में कायम नहीं रहा । पूँजीवादी क्रान्तियों के जिस झण्डे पर स्वतंत्रता–समानता–बंधुत्व का नारा लिखा हुआ था । सत्ता में आते ही पूँजीपति वर्ग ने उसे धूल में फेंक दिया । उसने इन पवित्र सिद्धान्तों को व्यापक जनता तक ले जाने की जगह केवल अपने और अपने सहयोगी, सभ्रान्त वर्गों तक ही सीमित कर दिया । साथ ही जिन सामन्ती मूल्य–मान्यताओं और विचारों के खिलाफ उसके पुरखों ने जीवन–मरण का संघर्ष चलाया था उन्हीं के साथ उसने समझौता किया । अपने वर्गीय शासन को बनाये रखने के लिये जरूरी था कि बहुसंख्य मेहनतकश जनता को अंधविश्वासों और अतार्किक मताग्रहों के जाल में फँसाये रखा जाये, उन्हें भाग्य और भगवान की शरण में ही रहने दिया जाये । पूँजीवाद के पराभव और पतनशील साम्राज्यवादी दौर में आज विकसित देशों में ही कट्टरपंथी, अतार्किक और प्रतिगामी मूल्यों को तेजी से फलते–फूलते देख रहे हैं । नवनाजीवादी, फासीवादी ताकतें हर जगह सर उठा रही हैं और सत्ता के गलियारे तक पहुँचने के लिए हाथ–पाँव मार रही हैं ।


हमारे देश की स्थिति तो और भी विचित्र है जहाँ का शासक वर्ग जनतांत्रिक क्रान्तियों की पैदाइश नहीं है । उपनिवेशवादी दौर में अंग्रेजों की छत्रछाया में उत्पन्न वर्ग ने समझौते और दबाव की रणनीति अपना कर खुद को आगे बढ़ाया और सत्ता हस्तान्तरण के जरिये शासन की बागडोर सम्भाली । राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी इसने सामन्तवाद से समझौता किया । अपनी वर्गीय सीमाओं के चलते अर्थव्यवस्था सहित जीवन के हर क्षेत्र में उपनिवेशवाद विरोधी, सामन्तवाद विरोधी जनवादी कार्यभारों को क्रान्तिकारी तरीके से पूरा नहीं किया । आधे–अधूरे सुधारों के जरिये एक विकलांग–विकृत पूँजीवादी समाज अस्तित्व में आया । ऐसे समाज में स्वस्थ्य पूँजीवादी मूल्यों और वैज्ञानिक नजरिये का अभाव कोई आश्चर्य की बात नहीं । संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या यहाँ सर्वधर्म सम्भाव के रूप में की जाती है । धार्मिक भावनाओं पर चोट पहुँचने की आड़ में प्रगतिशील विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अक्सर गला घोंटा जाता है । शासन–प्रशासन के स्तर पर हिन्दू कर्मकाण्डों का प्रयोग यहाँ आम बात है । नेताओं–अधिकारियों द्वारा सरकारी कार्यक्रमों में नारियल फोड़ना, हवन–पूजन, अनुष्ठान या भजन–कीर्तन सर्वस्वीकृत है । सरकारी पार्कों और सार्वजनिक जमीन पर पूजा स्थल, यहाँ तक कि सरकारों कार्यालयों और थानों में मंदिर होना कानून सम्मत है । सरकार के शीर्ष अधिकारियों–नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों में भागीदारी और समाचार माध्यमों से उनका प्रसारण भी वैध है । दक्षिणपंथी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाते हुए बड़े पैमाने पर यही काम कानून के जरिये किया जा रहा हैं ऐसे में बहुसंख्य अशिक्षित जनता का अंधविश्वास और कट्टरपंथ की गिरफ्त में होना या अपने आचरण व्यवहार में वैज्ञानिक नजरिये न अपनाना कोई आश्चर्य की बात नहीं ।


इक्कीसवीं सदी के इस मुकाम पर हमारे देश में मध्ययुगीन अवैज्ञानिक–अतार्किक, जड़मानसिकता का प्रभावी होना बहुत ही चिन्ता का विषय है  । यह हमारे देश और समाज की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा है । हालाँकि वैज्ञानिक चेतना और दृष्टिकोण के प्रचार–प्रसार में नई सरकारी–गैर सरकारी संस्थायें सक्रिय हैं, लेकिन उनका प्रभाव अभी बहुत ही सीमित है ।


इस पुस्तिका में संकलित लेख वैज्ञानिक नजरिया विकसित करने की दिश में सक्रिय एक ऐसे ही मंचµ द बैंगलोर साइन्स फोरम द्वारा 1987 में प्रकाशित ‘‘साइन्स, नॉन साइन्स एण्ड द पारानौरमल’’ नामक संकलन से लिये गये हैं । इस संकलन में विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये से सम्बन्धित गम्भीर लेखों के अलावा अंधविश्वास और चमत्कार का पर्दाफासा करने वाले कई लेख संकलित हैं । डॉ– एच नरसिंम्हैया के नेतृत्व में गठित जाने माने वैज्ञानिकों के इस मंच ने विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये के प्रचार–प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है । अपनी क्षमता और सीमा को देखते हुए हमने इनमें से 10 लेखों का चुनाव किया और हिन्दी पाठकों के लिए उनका अनुवाद प्रस्तुत किया है । आगे इस विषय पर अन्य लेखों का अनुवाद भी प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा । पाठकों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तिका के बारे में अपने सुझाव और आलोचना से हमें अवश्य अवगत करायेंगे ।   
गार्गी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक– विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिया की भूमिका)