Saturday, 29 July 2017

पुस्तकालयों को बचाने की मुहिम

पुस्तकालयों को बचाने की मुहिम

library02आजकल हिंदी साहित्य के तमाम मसले सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर हल हो रहे हैं. विवाद से लेकर विमर्श तक. कुछ लेखकों को फेसबुक की अराजक आज़ादी ने एक ऐसा मंच मुहैया करवा दिया है जहां वो अपनी अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं. कोई वहां बेहतरीन कवि, कहानी, उपन्यासकार, आलोचक और पत्रकार की सूची चिपकाते रहते हैं तो कई लोग उसको अपने प्रचार का प्लेटफॉर्म मानकर उपयोग कर रहे हैं. फेसबुक किसी भी मुद्दे या घटना के ख़िलाफ़ या समर्थन के अभियान का मंच भी बन गया है. इस आभासी दुनिया की अराजक आज़ादी के दौर में कुछ गंभीर मसले भी अभी फेसबुक पर उठ रहे हैं. इसी तरह का एक गंभीर अभियान फेसबुक पर चल रहा है- चलो करनाल. साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों से करनाल जाने की अपील इस वजह से की जा रही है कि वहां के पाश पुस्तकालय को बंद करने की साज़िश हो रही है. पाश पुस्तकालय ने करनाल और आसपास के इलाके में साहित्यिक सांस्कृतिक चेतना जगाने का और एक सांस्कृतिक संस्कार विकसित करने का काम किया है. वहां पुस्तकालय के अलावा देश भर के लेखकों और रंगकर्मियों का जमावड़ा होता रहा है. लेकिन अब उस साहित्यक सांस्कृतिक केंद्र को बंद करने की कोशिश की जा रही है. हिंदी का साहित्य समाज इससे उद्वेलित है. कुछ दिनों पहले इस तरह की ख़बरें आई थीं कि दिल्ली की मशहूर और ऐतिहासिक लाइब्रेरी-दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा है. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बदहाल है, वहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. कर्मचारियों के वेतन पर संकट के अलावा पुस्तकालय की किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को सहेजने के लिए भी आवश्यक धनराशि की कमी है. लिहाजा ऐतिहासिक महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का ख़तरा उत्पन्न हो गया है. कमोबेश यही हालत देशभर के पुस्तकालयों का है. यह हालत तो तब है कि जबकि पुस्तकालयों में किताबों की सरकारी ख़रीद के लिए लंबा चौड़ा बजट है. किताबों की ख़रीद के लिए संस्कृति मंत्रालय के अधीन राजा राम मोहन राय के नाम से एक ट्रस्ट है. यह ट्रस्ट देशभर के सरकारी और गैरसरकारी पुस्तकालयों को किताबों की ख़रीद के लिए अनुदान देता है. इस ट्रस्ट में विभिन्न मंत्रालयों और सरकारी विभागों के अधिकारियों की अलग अलग समिति होती है. इसके अलवा सांसदों के स्थानीय विकास निधि में भी एक निश्‍चित धनराशि पुस्तकों के लिए आरक्षित करने का भी प्रावधान है. सांसद उस धनराशि का उपयोग हर साल अपने इलाके के स्कूलों में किताबें ख़रीदने के लिए अनुदान के तौर पर दे सकते हैं. बावजूद इसके हमारे देश में पुस्तकालय मरणासन्न हो रहे हैं. एक ज़माना था जब पुस्तकालयों की अहमियत इतनी ज्यादा थी कि उसके बगैर छात्रों और शोधार्थियों का काम ही नहीं चलता था. मैं कई ऐसे लेखकों को जानता हूं जो किसी लेखक की रचनावली पर काम करने के सिलसिले में कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी में महीनों तक किताबें और पत्र-पत्रिकाएं छानते रहे हैं. मुझे नब्बे के दशक के अपने दिल्ली विश्‍वविद्यालय के शुरुआती दिन भी याद आते हैं जब हम अपने छात्र जीवन के दौरान दिल्ली विश्‍वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे. यह नियमितता वैसी ही थी जैसी कि दफ्तर जाने की होती है. तय समय पर घर से निकल जाना और फिर भोजनावकाश के बाद फिर से वहां जाकर शाम तक डटे रहना. पुस्तकालय में पढ़ने के माहौल के अलावा भी नियमितता की एक अन्य वजह थी. वह वजह थी वहां पहुंचने वालों छात्रों की भीड़. अगर आप दस मिनट भी लेट हो गए तो आपको लाइब्रेरी में जगह नहीं मिलती थी और आपको निराश होकर वापस लौटना पड़ता था. लेकिन अब वहां के हालात भी बदलने लगे हैं. सभी लाइब्रेरी की तरह वो भी उदासनीता का शिकार होने लगा है.
पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता और उनकी बदहाली के लिए हमें इसके सामाजिक और अन्य कारणों की पड़ताल करनी चाहिए. जब हम अपने आसपास देखते हैं तो ये सारी वजहें हवा में तैरती नज़र आती हैं. कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों की दुर्गति के लिए इंटरनेट ज़िम्मेदार है. अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं. आपने कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है. इस तर्क में ताक़त है और हो सकता है कि पुस्तकालयों के प्रति हमारी उपेक्षा का यह भी एक कारण हो. लेकिन पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा की जो सबसे बड़ी वजह है वो है हमारी शिक्षा पद्धति. हमारी शिक्षा पद्धति ही इतनी दोषपूर्ण है कि वहां पुस्तकालयों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता है. जिस तरह से देशभर में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का जाल फैला है उसने भी पुस्तकालयों को स्कूल की शोभा भर बना दिया है. अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इस बात पर ज़ोर तो रहता है कि छात्रों को खेलकूद, नृत्य संगीत से लेकर स्केटिंग में रुचि विकसित की जाए, लेकिन क्या इन स्कूलों में छात्रों को पुस्तकालयों से उपन्यास या कहानी या कोई अन्य किताब पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है. अगर हम इसका उत्तर ढूंढते हैं तो अंधकार दिखाई देता है. आज हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा में आने वाले अंक इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उसके अलावा किसी अन्य चीज़ पर छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों का फोकस ही नहीं रहता है. छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग की जाने लगी है कि उसके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है. अन्य पुस्तकों का महत्व रहे भी क्यों क्योंकि वो पाठ्य पुस्तक तो हैं भी नहीं.

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